Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र नवम्, परिच्छेद]
कन्दर्प सुन्दरी मुख्या तस्य देव्यो मनोहराः । पौरा सर्वेऽपि ते शूरास्तथा पत्तन योषिताः ॥१५४।। चित्र विचित्र नामानौ यो कुमारौ खगात्मजौ । श्रीपालस्यालको दोसुकण्ठ श्रीकण्ठ संज्ञको ।।१५५॥ सुशीलाण्योऽथ गन्धयों यशोधन नृपनन्दनः।। विवेकशील नामानि वचसेन चतुस्सुताः ॥१५६॥ हिरण्यं संजक स्वहारमा भूपति हो। स्थान कुकुणनाथस्य सुधर्म करणोत्सुकौ ।।१५७।। राज्ञो मकरकेतो/वन्ताल्य सुन्दरात्मजौ।। पितामदनसुन्दर्याः प्रजापाल नरेश्वरः ॥१५८॥ श्रीपाल सेविनोऽन्यऽपि बहबो देशनायकाः । समेत्यान्ये नरनार्योव हवस्सुगुण शालिनः।१५६॥ सर्वे ते भूभुजा सा सिद्धचकस्य सद्वतम् । स्वीचकः परमानन्दात् यथा राजा तथा प्रजा ॥१६०।। इत्थं श्रीजिनसिद्धचक्र विलसत्पूजा प्रभावोत्तमम् । संश्रुत्य श्रुतसागरेण मुनिना प्रोक्त स्वजन्मान्तरम् ॥१६॥ सन्तुष्टो नसमस्तको गुरुजने श्रीपालनामा नृपः । लात्वा तद्वतमुत्तमं परिजनैस्संप्राप्तवान् पत्तनम् ॥१६२।।
अन्वयार्थ-अत सागर प्राचार्य श्री थोपाल जी के पूर्वभब घर्णन करते हुए कहते हैं कि (पुन:) आचार्य श्रा ने पुनः कहना प्रारम्भ किया (श्रोजिननाथोक्त) श्री सर्वज्ञजिनदेव कथित (श्रावकाचारपालनात् ) श्रावक प्रत्तों का पालन करने से (हि) निश्चय से (स्वराज्यमा अपने राज्य को तथा (विशेषण) विशेषरूप से (स्मरसुन्दरीम्) मैंनासुन्दरी को (स्वम् ) तुभने (प्राप्थ) प्राप्त किया। (एवं) इस प्रकार अपनी (भवावली) भवसम्बन्ध (श्रुत्था) सुनकर (तदा) तब (ोपाल भूपतिः) श्रोपालराजा ने (तम्) उन (श्रुतसागरनामानम ) श्रुतसागर मामक (मनीन्द्रम) मनिराज को (प्रणम्ब) नमस्कार कर (च) और (महा भक्तिभरण) अत्यन्त भक्तिभाव से (परमानन्दनिर्भरः) परम प्रानन्द से परे उस राजा ने (आशु) शीघ्र ही (पूनः) फिर से (श्रीसिद्धिचस्यनतम् ) श्रीसिद्धचक के छत को जो (लोषय तारणम तीनों लोकों का तारने वाला है (मनोवाकाय योगतः) मन वचन काय से (भव्यात्मासुधी:) भव्य ज्ञानी ने (जम्राह) स्वीकार किया। (दुर्गत्यादिक्षयंकारि) दुर्गतियों का नाशक (स्वर्ग