Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 549
________________ ५१२] [ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद कारयित्वा जिनेन्द्राणां प्रतिमास्सुमनोहराः । स्वर्णरत्नमयीदिव्याः परमानन्ददायकाः ॥ तत्प्रतिष्ठां गरिष्ठां च महासङ्घ ेन संयुताः कारयामास सद्भक्त्या दान मानशतैः प्रभुः ॥६॥ पूर्वोक्त कलाशाश्च रत्नस्वर्णादि निर्मितान् । ढोकयामास भूपालो भक्तितो जिनमन्दिरे ॥१०॥ अन्वयार्थ --- ( तत्र ) उपवास हो जाने पर उद्यापन में वहां ( रत्नतोरणासंयुक्तान् ) नवरत्नों के तोरणों से युक्त ( ध्वजाद्य : ) ध्वजा, कलश, मालादि से (परिशोभितान्) चारों ओर से शोभायमान ( उत्रतान् ) ऊंचे- विशाल (शुभान् ) शुभ- भव्य रूप (श्री मज्जिनेन्द्राणाम् ) श्री मज्जिनेन्द्रों के ( प्रासादान् ) मन्दिरों को ( कारयित्वा ) बनवाकर ( सुमनोहराः ) अत्यन्त मनोज (स्वर्णरत्नमयी) सुवर्ण व रत्नों से निर्मित (दिव्या) सौम्य ( परमानन्ददायकाः ) परम आह्लाद उत्पन्न करने वालो ( जिनेन्द्राणाम् ) जिनभगवान की (प्रतिमा) निम्न (कारfreat ) बनवाकर ( गरिष्ठाम् ) वृहद् ( महासङ् घेन संयुताः ) महा चतुविध संघ सहित ( प्रतिष्ठाम् ) प्रतिष्ठा ( कारयामास ) करवायी ( सद्भक्त्तया) निर्मल भक्ति से (प्रभुः ) राजा श्रीपाल ने ( दानमानशतः ) सैकड़ों दान सम्मान द्वारा (पूर्वोक्त) ऊपर कथित ( रत्नस्वर्णादिनिमितान् ) रत्न और सुवर्णादि से बने ( कलशादीन् ) कलादि को ले (भूपाल : ) वह धर्मपरायण ( भूपाल : ) राजा ( भक्तितः ) भक्ति से भरा (जिलमन्दिरे) श्री मज्जिनमन्दिर में (भक्तितः ) भक्तिभाव से भरा ( ढोकयामास ) आया चतुविध महासङ्घ वात्सल्यं सुमनोहरम् । चकार परमानन्दात् स्वयं चापि महीपतिः ।। ११ दारिद्र्यं याचकादीनां भूरि स्वर्णादि दानतः । चोदयामास भव्यात्मा जिनपूजा महोत्सवैः ॥ १२३॥ सत्यं श्रीमज्जिनेन्द्राणां प्रतिष्ठादिषु कर्मसु । सम्भवेत्पूजनं नित्यं जगज्जीवन मुसमम् ॥१३॥ इत्यादिजिनैः प्रोक्त दानपूजादि लक्षणम् । सु श्रीपाल महाराजास्सदा कुर्बन् सुखं स्थितः ।। १४|| तथा तस्य नरेन्द्रस्य संक्षेपेण निगद्यते । सम्पदः शर्मदा सर्व सज्जनानां मनः प्रियाः ।। १५ ।। अन्वयार्थ - (च) और (स्वयंम् ) स्वतः: ( महीपतिः) राजा ने (अपि) भी (सुमनी

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