Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र नवम, परिच्छेद खुर से प्राप्त तलवार, (सिंहव्याघ्रादिभिः) शेर, बाघादि द्वारा (प्रारबिसर्जनम्) प्राण त्यागना (वरम) श्रेष्ठ (अग्निपातः) आग में जलना (अपि) भो (सुन्दर:) अच्छा (तु) उसी प्रकार (जलेपातनम् ) जल में कूदना (वरम्) उत्तम, किन्तु (शील संयमशालिनाम्) शील संयमादि गुणों से युक्त (मुनीन्द्राणाम) मुनीराजों को (निन्दा) निन्दा (नैव) श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि (हालाहलादिकम् ) हालाहल विषादि का (दुःखम् ) दुःख (प्राणविसर्जने ) प्राणनाग में (क्षणम्) क्षणभर को होता है (मुनीनाम् ) मुनियों की (निन्दनम् ) निन्दा (भवे-भवे) भव-भव में (दुःखम् ) दुःख (करोति) करती है (तस्मात्) इसलिए (भव्य) भो भव्य (गुरणोज्वल ! ) गुरगों से प्रकाशित (राजेन्द्र!) भूपेन्द्र (श्रीपाल) श्रीपाल ! (प्रत्र) संसार में (तपस्विनाम) तपस्वियों को (निन्दा) निन्दा (प्राणत्यागेऽपि) प्राण त्याग करने पर भी (नैव) नहीं (कर्तव्या) करना चाहिए ।
भावार्थ हे राजेन्द्र श्रीपाल संसार परिभ्रमण के दुःखों का मूल मुनि निन्दा है । हालाहल विष खालेना अच्छा है, गोखुर से उत्पन्न असि तलवार से आत्मघात करना कहीं अच्छा हो सकता है, सिंह व्याघ्र, सर्प व्यालादि द्वारा मारा जाय तो अच्छा है, अग्नि में जलना जल में हुमा, बर से बह मरः " मला है परन्तु शील संयम रूप धन के धारक, वीतराग दिगम्बर साधुनों गुरुओं को निन्दा करना, उन्हें दोष लगाना, उनका अवर्णवाद करना कभी भी अच्छा नहीं है । क्योंकि विषादि भक्षण कर व अग्नि, जलादि द्वारा तो एक ही बार एक ही भव में मरण दुःख देता है परन्तु मुनिनिन्दा का दुष्परिणाम तो जीव को भव-भव में महाभयङ्कुर दुःख देता है। अतः मुनिनिन्दा महाघातक नरक निगोद को कारण और सकल दुःख, सन्तापों की जननी है । इसलिए हे उज्ज्वलगुणालंकृत राजेन्द्र, कभी भी स्वप्न में भी मुनी निन्दा नहीं करना चाहिए। प्राण जाने पर भी मुनि निन्दारूप परिणाम नहीं होना चाहिए । अभिप्राय यह है कि संसार में मुनिनिन्दा महाभयंकर, पाप और अभिशाप है। धर्मभीस्मों को यति निन्दा से बचना चाहिए ।।१४५ से १४८।।
पुनः श्रीजिननाथोक्त श्रावकाचार पालनात् । स्व राज्यं हि विशेषेण त्वं प्राप्थ स्मरसुन्दरीम् ॥१४६।। एवं भवावलों श्रुत्वा तदा श्रीपाल भूपतिः । श्रुतसागर नामानं मुनीन्द्रं तं प्रणम्य च ॥१५०।। महाभक्तिभरणाशु परमानन्द निर्भरः । पुनः श्रीसिद्धचक्रस्यव्रतं त्रैलोक्य तारणम् ।।१५१।। सुधीजग्राहभन्यात्मा मनोवाक्काय योगतः । दुर्गत्यावि क्षयंकारि स्वर्गमोक्षादि साधनम् ॥१५२।। तत्प्रभावं समाकर्ण्य ते सप्तशत सेवकाः । राजानश्च परे सर्वे तथा श्रीपालनन्दनाः ।।१५३॥