Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद मुनेस्सरसि पातेन पातितस्त्वं पयोनिधौ । निष्काशितो मुनिस्तस्मातटाकाच्च त्वयायतः॥१४३॥ समुत्तीर्य समुद्रं त्वं पारे लग्नस्ततो प्रवम् ।
मुनेश्चाण्डाल वाक्येन चाण्डालो धोषितस्तकः ।।१४४॥ प्रन्ययार्य-(प्रतः) इसलिए (दक्षः) चतुर पुरुषों द्वारा (स्वर्गमुक्तिकरम्) स्वर्ग मोक्ष देने वाला (इदम्) यह (सारं व्रतम.) उत्तम व्रत (सर्वशक्तित:) सर्वप्रकार शक्ति प्रयत्नों से (विश्वविध्नौष) संसार के विघ्न समूहों को (घातकम् ) नाश करने वाला (कर्तव्यम् ) करना चाहिए, । (सिद्धचक्र प्रपूजनात्) सिद्धचक्र की सम्यक् पूजा करने से (पूर्वम् ) पहले ही (त्वया)तुम्हारे द्वारा (पापम् ) पाप (क्षिप्तेम नष्ट कर दिये गये (तथाऽपि ) तो भी (किञ्चित्) कुछ (गन्धमात्रम्) वासनामात्र (त्र) और (पापम्) पाप (त्वयि) तुम में (स्थितम्) रह गये । (पूर्वम्) पहले (श्रीकान्ताल्यभवे) श्रीकान्तराजा के भव में (श्रावकन्नतसंग्रहात्) श्रावक के व्रतों का पालन करने से (त्वया) तुम्हारे द्वारा (लघुत्त्रेऽपि) अल्पवय रहने पर भी (पितु:) पिता का (राज्यम.) राज्य (प्राप्तम् ) प्राप्त किया गया (प्रमो) हे राजन् (शृण ) सुनो (व्रतभङ्गन) व्रत मन करने से (राज्यभङ्गः राज्य भ्रष्ट (मुनेः) मुनि के (कुष्ठीति) कोढ़ी है इस प्रकार (जल्पनात्) बोलने से (सेवकः) सेवकों के (सह) साथ (भूपते) हे भूप (त्वम् ) तुम (अपि) भी (कुष्ठी) कोढी (सञ्जातः) हुए (कृपायुक्तेन) करुणासागर (धीमता) बुद्धिमन् (वरदत्तमुनीन्द्रन) वरदत्त मुनिराज ने (हि) निश्चय ही (ते) तुम्हें (प्रायश्चित्तम.) दण्ड (दत्तम.) दिया (तेन) उससे तुम (सुन्दरः) रूपवान (जातोसि) हुए हो । (मुनेः) मुनिराज के (सर्रास) सरोवर' में (पातेन) डालने से (त्वम् ) तुम (पयो. निधी) सागर में (पातितः) गिराये गये (सस्मात् ) उस (तटाकान्) सरोवर से (स्वया) तुम्हारे द्वारा (मुनिः) मुनिराज (निष्काशितः) निकाल लिये गये (यतः) इससे (स्वम ) तुम (समुद्रम ) समुद्र को (समुत्तीय) पार कर (पारे) किनारे पर (लम्नः ) या लगे (ततो) इस के वाद (घ्र वम.) निश्चय से (मुनेः) मुनि के प्रति चाण्डाल:) चाण्डाल (वाक्येन) वाक्य से (घोषितः) घोषित किया इसीलिए (तकैः) उन चाण्डालों द्वारा (श्वमपि) तुम भी (चाण्डालः) चाण्डाल (घोषितः) घोषित किये गये।
भावार्थ:-सिद्धचक्र व्रत के महात्म्य और विशिष्ट फल को ज्ञात कर भव्यों को, चतुर प्राणियों को शक्ति भक्ति, हर प्रकार प्रयत्न करके इस महापवित्र व्रत को धारण करना चाहिए, पालन कर अशुभ पाप कर्म समूह का नाश भी करना चाहिए और सातिशय पुण्यार्जन कर स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करना चाहिए । श्रीपाल महाराज को सम्बोधन करते हुए श्रीगुरु मुनि