Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 539
________________ ५०२ [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद लगा । सात धातु, मल, मुत्रः पसीना रहित (दिव्य शरीरवान् ) दिव्य देहधारी (स्व) अपनी ( इन्द्राजोभिः ) इन्द्राणियों (समम् ) सहित ( असंख्य ) असंख्यात ( द्वीपवाद्विषु) द्वीप समुद्रों में ( सोद्य उद्यान बनायादिषु ) महल, बगीचा, बतादि में ( स्वेच्छया ) अपनी इच्छा से (मुद्रा) आनन्द से ( क्रीडाम) क्रीडा ( प्रकुर्वन ) करता हुआ (शृङ्गारनृत्यमुज्जितम) श्रृंगारनृत्य में तल्लीन हुयी ( रम्यम ) सुन्दर ( अप्सरसान) अप्सराओंों को ( पश्यन् ) देखता हुआ ( सत्पुण्यपाकतः) श्रेष्ठपुयविपाक से ( परमम् ) उत्तम ( सौख्यम् ) सुख को ( बुभुजे ) भोगने भावार्थ- वह इन्द्र तीनलोक के अकृत्रिम जिनालयों की वन्दना करता था। पाँचों hai और द्वीपों में स्थित जिनालयों के जिनबिम्बों की रत्नमयो प्रतिमाओं की कर्मनाशक पूजा, भक्ति स्तुति करता तो कभी देव देवियों के साथ स्वयम्भूरमण समुद्र तक जा जाकर अनेक प्रकार की क्रीडाएं करता, हास-विलास और आमोद-प्रमोद में मग्न हो जाता । परन्तु धर्म मावना सतत उसके हृदय में जाग्रत रहती । सम्यग्दर्शन के माहात्म्य से राग-रङ्ग के साधनों के रहते हुए भी वह कभी पञ्चकल्याणक पूजा महोत्सव करता था। नन्दीश्वर द्वीप, कुण्डलगिरि द्वीप, रुद्वीप आदि में जाकर प्रतिदिन जिनविम्बों का पञ्चकल्याणक महोत्सव सहित महापूजा और महामस्तकाभिषेक करता | पाँच-पाँच सौ धनुष उतुङ्ग रत्नमयी जिनविम्बों का दर्शनकर अपने जन्म को धन्य और सफल बनाता। परम भक्ति और पूर्व सुन्दर दिव्य आकर्षक विविध सामग्री लेकर जिनाच करता हुआ सर्वत्र सचार करता था । तथा यत्र-तत्र सर्ववीतरागी, परम दिगम्बर, महातपस्वी, चारणऋद्धि सम्पन्न गुरुयों को भक्ति-भाव सफल बनाता । उसकी आयु १= (अठारह ) सागर की थी। साढ़े तीन हाथ प्रकारण दिव्यशरीर को ऊँचाई थी । चतुर्थंनरकभूमि पर्यन्त वह अपने अवधिज्ञान रूप लोचन से निहारता था उतनी ही विक्रिया करने में समर्थ था । अर्थात अधोलोक में विक्रिया से चौथानरक- पङ्कप्रभा तक गमनागमन करने को सामर्थ्य से युक्त था। विविध प्रकार की विक्रिया करने में उसका सामर्थ्य था। वह अठारह हजार वर्ष के व्यतीत होने पर मानसिक आहार करता, नौ महीने व्यतीत होने पर थोडा सा उच्छवास ग्रहण करता, सप्तधातु वजित उसका शरीर था, मल, मूत्र, पसीनादि से रहित था अर्थात शुद्ध दिव्य शरीर था। वह अपनी इन्द्राणियों सहित स्वेच्छा से मनोनुकूल, प्रासादों, उद्यानों वापिकाओंों, वन-उपवनों, असंख्यात द्वीप सागरों में जा जाकर नानाविध कोडाए-आमोद-प्रमोद करता था । कभी आनन्द से नाना हाव-भाव राग-रङ्ग नृत्यादि करतो हुयों अपनी अप्सराओं को देखता हुआ उनको नृत्य-नाट्यकलाओं का निरीक्षण करता । इस प्रकार अपने सातिशय पुण्य के फल को निरुत्सुक भाव से भोगता था। धर्म के फल को सम्यग्दष्टिजीव किसानवत् धर्म का रक्षण करता हुआ हो भोगता है। इसी प्रकार यह श्रीकान्त राजा का जोव 'इन्द्र' भी धर्मध्यान पूर्वक श्रानन्द से काल यापन करने लगा ।।१२७ १३४ ।। नमस्कार कर जन्म ततश्च्युत्वा शतारेन्द्रः सद्धर्मध्यान प्रभावतः । जातस्त्वमीह पुण्यात्मा चरमाङ्गो महावली ॥१३५॥ इति राजन् महासिद्धचक्र व्रत प्रभावतः । बहु दुर्गति पापं क्षपित्वाऽभूत्त्वमोदृशः ||१३६ ॥

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