Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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४१८]
[ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छे
(परमो बन्धुः) और श्रेष्ठ बन्धु हो (वा सर्वत्र) अथवा सदा (में) मेरे प्रति (क्षमा अस्तु) क्षमा भाव रखना।
भावार्थ राज्य के प्रति सर्वथा निस्पृह वीरदमन गजा धीपाल को कहने लगे कि यह राज्य धर्म का धात करने वाला है, महापाप को उत्पन्न करने वाला और नरक का कारण है ऐसा राज्य अब मुझे नहीं चाहिये । हमारे अन्दर वैराग्य को जागृत करने वाले तपश्चरण की भावना को पैदा करने वाले तुम वस्तुत: आज धन्यवाद के पात्र हो, हमारे परम बन्धु हो । सर्वत्र क्षमा के धारी तुम मेरे प्रति भी क्षमा भाव रस ना ।।६६, ६७।।
इति धापा सताक्षरित्या जियोतिमि । परित्यज्य त्रिधा सर्व परिग्रहमहाग्रहम् ॥६॥ ज्ञानसागर नामान मुनीन्द्रं बोधसागरम् ।
नत्वा दीक्षां समादाय सजातो मुनिसत्तमः ।।६।। अन्वयार्थ- (इति) इस प्रकार (प्रियोनिभिः) प्रिय वचनों के द्वारा (क्षमयित्वा) क्षमा करा कर (ततः) पुन: (नम् च) और उसको क्षान्स्वा) क्षमाकर (विधा) मन वचन काय से (महाग्रहम् ) महाग्रह-पिशाच स्वरूप (परिग्रहसर्व) सम्पूर्ण परिग्रह को (परित्यज्य) छोड़कर (दोधमागर) समुद्र के समान गम्भीर ज्ञान के धारी (ज्ञानसागर नामानं) ज्ञानसागर नामक (मुनीन्द्र) मुनिराज को (नत्वा) नमस्कार कर (दीक्षां समादाय) दीक्षा लेकर (मुनि सत्तमः) मुनिपुङ्गव (सञ्जातो) हो गये।
भावार्थ-अपने मधुर वचनों से थीपाल के चित्त को सन्तुष्ट करते हुए अपने किये अपराधों के लिये क्षमा करा कर और श्रीपाल को स्वयं क्षमा कर, पिशाच वा दुष्ट ग्रह के समान घातक बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहों का मन वचन काय से मर्बथा त्याग कर ज्ञान के सागर स्वरूप ऐसे ज्ञानसागर मुनिराज को नमस्कार कर पीरदमन राजा ने मुनि दीक्षा ले ली और मुनिपुङ्गव हो गये ।।६८, ६६॥
सत्यं सतां भवेदुच्चैरापदोऽपि शिवश्रियैः । यथाऽसौ संयम प्राप वीरादिदमनो नृपः ॥७॥ येन केनाप्यनिष्टेन हन्यन्से मोहशत्रवः ।
गृह्यतेऽहो परादीक्षा तदनिष्टं वरं सताम् ॥७१।। अन्वयार्थ---(सत्यं ) सत्य है ( उच्चैः आपयोऽपि) महान विपत्ति भी (सा) सज्जनों को (शिव श्रियैः) मुक्ति श्री को देने वाली ( भवेत्) हो जाती है (यथा) जसे (अमौ) उस वीरादिदमनोनृपः) वीरदमन राजा ने (संयम प्राप) संयम को धारण किया । (अनिष्टेन) अनिष्टकारी अर्थात् मोह का नाश करने वाले (येन केन) जिस किसी उपाय से (मोहशत्रवः) मोह वा राग द्वेष क्रोधादि शत्रु(हन्यन्ते) विनाश को शप्त होवें इसके लिये (अहो ! हे भव्य