Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
५६
श्रोपाल चरित्र नवम परिच्छेद
तथा श्रीसिद्धचक्रस्य यन्त्रस्याऽपि महोत्सवः । सर्वसंघयुतैर्भव्य राजन् परया मुदा ॥६६॥ एवं च तद्वयं प्रीत्या स्नापयित्वा जगद्वितम् ।
मण्डले च चतुर्विक्षु अतम्रः प्रतिमा शुभाः।।६७।।
मन्वयार्थ - (श्रीवरदत्ताम्यः) श्रीवरदसनामा (स्वामी) मुनीन्द्र (मुनिः) मुनिराज ने (तद्वतम ) वह सिद्धचक्र वृत (प्राह) उसे बतलाया, (आषाढे) आषाढ (कातितो) कार्तिक (च) और (फाल्गुने) फागुन महीने में (सिता) शुक्लपक्ष (अष्टमी) अष्टमी को (आद्याम ) प्रथम (कृत्वा) करके (महाभत्र्य:) अत्यन्तभक्त भव्यो द्वारा (प्रातः) प्रात काल (शुभम) शुभवृत (प्रारम्यते) प्रारम्भ लिया जाता है। (तात्र) उस समय सर्वप्रथम (श्रोमांज्जनागारे) श्रीजिनमन्दिर में (ध्वजादिभिः) पताका, तोरण, घण्टा, मालादि द्वारा (शोभा) शोभा (कृत्वा) करके (पम्चधारनसम्च:) पांच प्रकार के रत्नों के चगा से (नन्दीश्वरोचितम्) मन्दीश्वर द्वीपसमान (भव्यानाम ) भव्यों के चित्तरञ्जनम ) मन को हर्षित करने वाला (च) और (चार) सुन्दर (मण्डलोद्वर्तनम ) मण्डल की रचना (कृत्वा) करके (पीठम । सिंहासन संस्थाप्य स्थापित कर (तर) वही (उच्च: विशेष रूप से श्रीजिनप्रतिमानाम) श्रीजिनबिम्बों का (हित:) हित करने वाले (सार पञ्चामृतः) शुद्ध उत्तम पञ्चामृतों से (सत्तमम.) उत्तम (स्नपनम् ) महामस्तकाभिषेक (कृत्वा) करके (च) और (श्रीसिद्धचत्रस्ययन्त्रस्यानि) श्रीसिद्धचक्र यन्त्र की भी (तथा) उसो प्रकार (महोत्सव:) महा उत्सव सहित (परया) अत्यन्त (मुदा) भानन्द से (सर्वसंघयुतः) चतुर्विधसंघ सहित (भव्यः) भव्यजनों सहित (भो राजन्) हे भूपाल ! (एवं) इस प्रकार (च) और भो (जगद्धितम जगत के हितकारी (एतद्द्वयम ) इन दोनों प्रतिमा और यन्त्र को (प्रोत्या) इर्ष से ( स्नापयित्वा) अभिषेक करके (च) और (मण्डले) मण्डल पर (चतुदिक्षु) चारों दिशानों में (शुभा:) कल्याणकारी (चतस्रः) चार (प्रतिमा:) बिम्ब (स्थापयित्वा) स्थापित करके -
भावार्थ---श्रीगुरु वरदत्त मनिराज ने राजा के अभिप्रायानुसार उस श्रीकान्त राजा को सिद्धचक्रवत दिया और उसकी विधि इस प्रकार बतलायो, भो राजन् यह व्रत एक वर्ष में तीन बार करना चाहिए । आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन महीने में सुक्लपक्ष की अष्टमी से इसे प्रारम्भ करना चाहिए। सर्वप्रथम प्रात:काल श्री जिनमन्दिर की शोभा ध्वजा, कन्दनवार, घण्टा, चमर माला आदि से करें । पुन: पाँच प्रकार के रत्नों का चूर्ण लेकर भव्यों का मन हरने वाला सुन्दर नन्दीश्वर द्वीप सदृश मण्डल रचना करे । पुन: सारभूत शुद्ध उत्तम पञ्चामृतों से श्रीजिनविम्बों और यन्त्र का महा अभिषेक करें। हे राजन यह महाभिषेक परमआनन्द और भक्ति से करना चाहिए। अभिषेक हो जाने पर मण्डल के चारों ओर सारों दिशाओं में जिनविम्ब स्थापित करें। यन्त्र भी स्थापित करके पूजा करें। सर्वसङ्घ-चतुर्विधसंघ और परिजन-पुरजन सबके साथ महानन्द से भो राजन् पूजा करना चाहिए ।।६२ से ६७॥
स्थापयित्वा जिनेन्द्राणां सिद्धचक्रं च सिद्धिवम् । कपूरवासित स्वच्छतोयः पाप प्रणाशनः ॥६॥