Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पोपाल चरित्र नवम परिच्छेद ]
[४८ हैं । अतएब पाप निवृत्ति के लिए, सुग्न और शान्ति के लिए यह नत परमौषधि और अमोघ मन्त्र है ।। ५७ से ५६।। .
चिन्तामणिः तथा कल्पतरोश्चापि सुखप्रदम् ।
सिद्धचक्रवत्तं पूज्यं देव देवेन्द्र सज्जनः ॥६॥
अन्वयार्य- (चिन्तामणिः) चिन्तामणिरत्न (तथा) एवं (कल्पतरो:) कल्पवृक्ष (अपि) भी (सुखप्रदम् ) सुखदायी होता है (च) और (सिद्धचक्रवतम् ) सिद्धचत्रवत तो (देव देवेन्द्रसज्जनैः) सुर असुर, इन्द्र और नरेन्द्र प्रादियों से भी (ज्यम) पूज्यनीय है।
भावार्थ - चिन्तामणि रत्न और कल्पवृक्ष तो सुख देने बाले ही माने जाते हैं परन्तु उनकी पूजा कोई नहीं करता । परन्तु यह सिद्धचक्रवत तो महान पूज्य है । सुरेन्द्र, नरेन्द्र क्या अहमिन्द्र सभी पूजते हैं । यह त्रैलोक्य पूज्य व्रत है ।।६011
श्रीकान्तस्तं निशम्या होत्या श्रावकवतम् ।
भो स्वामिस्तशतं देहि, विधिञ्चन हि मे सुधीः ।।६१॥ अन्वयार्थ--(श्रीकान्तः) नृपत्ति श्रीकान्त (तम् ) गुरुवाणो (निशम्य) सुनकर (श्रावकानतम ) श्रावक के व्रत (गृहीत्वा) धारण कर (पाह) बोला, (भो) हे (स्वामिन् ) भगवन् (तद्रुतम ) उस सिद्धचक्रवत को भी (देहि) दीजिये (च) और (मे) मुझे (चिधिम्) उसकी विधि को (सुधी:) हे ज्ञानिन् (बहि) कहिये ।
भावार्थ-श्री वरदत्त मुनिराज के मुखारविन्द से अपने पर्व भव का सकल वृत्तान्त सुन रहा है श्रीपाल । वे बतला रहे हैं कि राजन् उम धोकान्त महीपति ने गुरुवाणी को सुनकर पुनः शुद्धमन, वचन, काय से श्रावक के व्रत धारण किये । पुनः श्री सिद्धचक्र महावत को धारण करने की प्रार्थना की और उस व्रत की विधि पूछी । तद्नुसार करुणासागर श्रीगुरु उस दूत विधान को सविस्तार उसे समझाते हैं ।।६।।
स्वामी श्री वरदत्ताख्यो मुनिस्सम्प्राह तयुतम् । प्राषाढे कातिकेमासे फाल्गुने च सिताष्टमीम् ॥१२॥ प्राद्यां कृत्वा महाभव्यः प्रातः प्रारभ्यते शुभम् । तत्र श्रीमज्जिनागारे कृत्वा शोभा ध्वजादिभिः ॥६३॥ पञ्चधारत्न संचूर्णः कृत्वा नन्दीश्वरोचितम् । मण्डलोद्वर्तनञ्चारु भय्यानां चित्तरञ्जनम् ॥६४॥ पीठं संस्थाप्य तत्रोच्चैः कृत्वा स्नपनमुत्तमम् । श्रीजिनप्रतिमानां च सारपञ्चामृतहितः ॥६५॥