Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
४८८]
[ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद (परैः) उत्तम (रत्नक' रसद्दीपैः) रत्नमय दीप में कप्पूर ज्योतियुक्त दीपकों से (कालागरुत्पन्न) कालागरु से बनाई गई (भाग्य सौभाग्य दायक:) पुण्य और सम्पदा देने बाली (धुपैः) धूप से (मुक्तिफलप्रदः) मुक्तिफल को देने वाली (नारङ्गजम्बीरः) सन्तरा, बिजौरा, (नालिकेराममोचकं.) श्रीफल, प्राम, मोचफलों से (मातुलिङ्गादिभिः) विजौरादि (दिव्यैः) उत्तम, सुपक्व मनोहर (सारफलैः) उत्तम फलों से (जिनान्) जिन भगवान (लोक्यसम्भदान) तीनों लोकों में शान्तिकर (सिद्धान्) सिद्धों को (उच्न:) विशेषमहात्म्य से (पूजयित्वा) पूजा कर (महाभव्यैः) आसन्नमव्यों द्वारा (अध्यंनाऽपि ) अर्ध्य से भी (सुभक्तितः) अत्यन्त भक्ति से
समाराध्य) आराधना करके (पुनः) फिर (स्वर्गपात्रे) सुवर्ण के पात्र में (महाध्यम ) महा अर्घ्य (कृत्वा) करके जयमालया) जयमाला पढते हुए (प्रदक्षिणा) तीन परिक्रमा (प्रदातम्या) देना चाहिए पुन: (गोरतादित्रामा गीन दवित्र सहित साल और उमङ्ग से
श्री सिद्धचकस्य) श्री सिद्धचक्र की (पापप्रतारिणीम | पाप नाशक स्तितिम ) स्तति को (कृत्वा) करके (यन्त्रस्योपरि) यन्त्र के ऊपर (अष्टोत्तरशतप्रमाः) एक सौ आठ बार (एकाग्रचित्तेन) एकाग्र मन से (धी धनः) वद्धि हो है धन जिनका उनको जातिपुष्पेन) चमेली के पुष्पों से (अथवा) या (मनोहरः) चित्तरञ्जक (च) और भी (सोगध्य) सुगन्धित (सुमनोभिः) सुन्दर पुष्पों से (जाप्यम ) जाप (दातव्यम ) देना चाहिए
भावार्थ---मण्डल तैयार कर जिनविम्ब और सिद्धचक्र यन्त्र का विधिवत् पञ्चामृताभिषेक करके श्री मण्डल पर प्रतिमाजी और यन्य जी को स्थापित करें। चारों और जिनविम्ब विराजमान करके पुनः निर्मल, पवित्र, सुगन्धित कप्पू र, इलायची आदि सुगन्धित द्रव्यों प्रासूक स्वच्छ जल से पूजा करे । यह जल पूजा पापों का नाश कर जन्म, जरा, मरण के दुःखां से बचाने वाली है। कपूर, अगुरु, चन्दन आदि मुवासित कारादि से श्री जिनभगवान और सिद्धयन्त्र की चन्दन से पूजा करनी चाहिए। यह गन्धपूजा दुःख, सन्ताप, पीडादि का नाश करती है । संसार ताप को नष्ट करती है। महापुण्य पुञ्ज समान, निर्मल, स्वच्छ, अखण्ड अक्षतों से, पूजा करें । अक्षत पुञ्जरूप मुट्ठीभर कर शिखराकार पर चढाना चाहिए । यह अक्षय सुख प्रदायिनी हैं । जाति, मल्लिका, जुही, शतपत्र, सप्तच्छद, पाटलादि से श्री जिनप्रभु की पजा करने से विकार और कृविषय वासनामों का नाश होता है मनोहर और सुगन्धित से पजा करना चाहिए । नाना प्रकार घतादि से निमित सुगन्धित और स्वादिष्ट मिष्टान्न एवं व्यजनों से, दिशामों को मुगन्धित करने वाला अने को शुद्ध और ताजा पक्वान्नों से श्री जिनेन्द्रादि की पजा करे, रत्नों के दीपकों में कार्पूरादि की ज्योति जगाकर मुवर्णमय दीपों से पूजा-अर्चना करना चाहिए । अगुरु, चन्दन गुगल आदि से निर्मित सुगन्धित धूप से पूजा करें। दीप पजा मोहरूपी अन्धकार को नाशक होती है उसी प्रकार धूप पूजा भाग्य-सौभाग्य की प्रदाथिनी होती है । धूप अग्नि में ही खेना चाहिए । क्योंकि धूप कर्म नो कर्म स्थानीय है और अग्नि तप स्थानीय है। ईधन को भस्म कर अग्नि स्वयं द्ध रहती है उसी प्रकार तपाग्नि कर्मादि विकार रूप ई धन को जलाकर आत्मा को शुद्ध बनाती है। सन्तरा, जम्बोर, मौसमी, विजोरा, अनार, अंगूर, केला, सेव आदि सुपक्व, ताजा, गुन्दर, सुस्वादु उत्तम फलों से, दिव्य फलों से भव्यात्मा बुद्धिमान श्रावक श्राविकाओं को जिन पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार अष्टद्रव्यों से श्री जिनेन्द्र भगवान और सिद्धचक्र की पूजा करनी चाहिए। अत्यन्त भक्ति और