Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 533
________________ ४६६] [ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद शक्ति अनुसार ( भक्तितः ) भक्तिपूर्वक ( समाराध्यम ) सम्यक् प्राराधन करने योग्य है, ( प्रभो ) हे राजन् (नन्दीश्वर विधानस्य ) नन्दीश्वर विधान की (महिमा) महिमा ( भुवनातिगः ) लोकाबीत (फणीन्द्राद्यः ) धरणेन्द्रादि द्वारा (अपि) मी ( वणितुम ) वर्णन करने में ( शक्यते ) शक्य (नेव) नहीं है ( एवं ) इस प्रकार ( श्रीवरदत्ताख्यमुनीन्द्र ग ) श्री वरदत्तनामा श्राचार्य द्वारा (सुखाकरम) सुख का सागर ( सिद्धचक्रस्यनतम ) सिद्धचक्र का व्रत ( प्रोक्तम् ) कहा गया ( तदा ) तब (हि) निश्चय ही (तम) उस व्रत को (श्रुत्वा ) सुनकर । स श्रीकान्तो महाराजो विद्याधर महीपति । श्रीमत्यासह सन्तुष्टो मुनिं नत्वा तमुत्तमम् ॥१०८॥ लात्वा व्रतं जगत्पूज्यं गृहे गत्या प्रमोदतः । विधाय विधिना श्रीमानुद्यापन समन्वितः ॥ १०६॥ ततोऽन्ते विधिनादाय सन्यासं स्वर्ग मोक्षदम् । परमेष्ठी पद ध्यानात् कृत्वा प्राण विसर्जनम् ॥ ११०॥ एकादशं नाकेऽभूद् विश्वऋद्धयेक कुलालये । श्रीकान्तसौ शतारेन्द्र सिद्धव्रत फलोदयात् ॥ १११ ॥ श्रीमती व्रतपुष्येन तस्येन्द्रस्याभवच्छुचि । दिव्यरूपा गुणैः पूर्णा पुण्य कर्मकरा परा ॥ ११२ ॥ श्रन्वयार्थ -- (सः) वह (विद्याधरमहीपतिः) विद्याधर भूपति (श्रीकान्तः) श्रीकान्त ( महाराज : ) महाराज ( सन्तुष्टः ) प्रसन्न हुआ ( श्रमत्यासह ) श्रीमतीसहित (तम् ) उन ( उत्तमम) उत्तम ( मुनि) मुनिराज को (नत्रा) नमस्कार कर ( जगत्पूज्यम् ) विश्वबंध (त) को (लाखा) लेकर ( प्रमोदतः ) आनन्द से (गृहे ) घर में ( गत्वा ) जाकर (धीमान् ) बुद्धिमान ने ( विधिना ) विधिपूर्वक (उद्यापन समन्वितः ) उद्यापन सहित (विधाय ) करके ( ततः) अनन्तर ( अन्ते) मरण काल में ( विधिना ) विधि के अनुसार ( स्वर्गमोक्षदम् ) स्वर्ग मोक्ष देने वाला (सन्यासम) समाधि ( मरण) (आदाय ) लेकर ( परमेष्ठीपदध्यानात् ) पञ्चनमस्कारमन्त्र का ध्यान करते हुए ( प्राणविसर्जनम् ) मरण ( कृत्वा) करके ( विश्वऋद्धयेककुलालये) विविध ऋद्धियों के आलयस्वरूप ( एकादशंना के) ग्यारहवें स्वर्ग में ( असौ ) वह (श्रीकान्तः) श्रीकान्तराजा (मिद्धत्रत फलोदयात् ) सिद्धबूत के फल से ( शतारेद्रः ) तारेन्द्र (अभूत्) हुया (श्रीमती) रानी श्रीमती (व्रतपुण्येन) व्रत के पुण्य प्रभाव से ( दिव्यरूपागुणैः) सुन्दर रूप गुणों से (पूर्णा) पूर्ण ( पुण्यकर्मकरा परा ) शुभकर्मों को करने में तत्परा ( तस्य ) उस शतारेन्द्र को ( राचिः) इन्द्राणी ( अभवत् ) हुयो । भावार्थ- वरदत्तमुनीश्वर बतला रहे हैं कि हे विद्याधराधिपति यह श्री सिद्धचबूत अद्वितीय महात्म्य का प्रलोक है। इसक और परलोक को सिद्धि कराने वाला है । है राजन

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