Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र मष्टम परिच्छेद]
[४४७
र "ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्व्याधिर्भेषजाद् भवेत् ।
3 अन्नदानात्सुखो नित्यं निर्भयोऽभय दानतः॥६०॥
अन्वयार्थ--(ज्ञान दानेन) ज्ञानदान से (ज्ञानवान्) ज्ञानी (भैषजाद्) औषध दान से (निाधिः) निरोग (अन्नदानात्) अन्नदान से (नित्यं सुखी) सदा सुखी (अभयदानतः) अभयदान से (निर्भयो) निर्भय (भवेत्) होता है ।
भवार्थ- जीव ज्ञान दान से ज्ञानी और औषधदान से निरोग होता है तथा अन्नदान से सदा सुखी रहता है तथा अभयदान से-जोबों के रक्षण से निर्भय बनता है । यह पात्र दान का फल है ।।६०11
अभयाख्यं सदा देयं पात्रेभ्यो दानमुत्तमम् ।
अन्यत्राऽपि यथायोग्यं भयशोक विवर्जनम् ॥६॥ अन्वयार्थ- (अभयाख्य) अभयदान अर्थात् जीवों का प्राण का रक्षण करना (दानमुत्तमम्) श्रेष्ठ दान है (पात्रेभ्यो) पात्र के लिये (सदा) सदा (देयम् ) देने योग्य है (अन्यवाऽपि) पात्र के अतिरिक्त अन्य जीवों के भी (भयशोक विवर्जनम) भय शाक का निवारण (यथायोग्य) यथायोग्य करना चाहिये।
__ भावार्थ --रत्नत्रय से अथवा मात्र सम्यग्दर्शन से युक्त व्यक्ति पात्र है उसके जीवन का रक्षण करना अभय दान है । यह अभयदान दयाप्रधान होने से अहिंसा का प्रतीक होने से श्रेष्ठ है। पात्र से अतिरिक्त अर्थात सम्यग्दर्शन से रहित अन्य जीवों का रक्षण उनके भ प्रादि का निवारण भी यथायोग्य करना चाहिये । एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के द्रव्यप्राण और भावप्राणों का रक्षण करना भी अभयदान है ।।६१।।
तथा राजन् महाभव्यः प्रासादः श्रीजिनेशिनाम ।
ध्वजादिभिर्महाशोभाशतः कार्यों जगद्धितः ॥६२॥ प्रन्ययार्य - (तथा ) नथा (राजन् ) हे राजन् (महाभव्यैः) महाभव्य पुरुषों के द्वारा (जगद्धित:) समस्त जगत का हित करने वाले (श्रीजिने शिनां) श्री जिनेन्द्र प्रभु के (प्रासादः) महल-जिनभवन (ध्वजादिभि: महाशोभा गतैः) महाशोभा को करने वाली सैकड़ों ध्वजा आदि बस्तुओं से (कृतः) अलंकृत किये जावें ।
भावार्थ --आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और औषधदान के साथ-साथ भव्य पुरुष सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पायतन स्वरूप जो जिन भवन-जिनालय हैं उन्हें भी प्रलंकृत करें । द्वार पर तोरण-वन्दनवार लगावें । अष्ट मंगलद्रव्य जिनमंदिर में रख - .
त्रिलोकसार में भी अष्टमङ्गल द्रव्यों का समुल्लेख है