Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद धारण करता है (स) वर (पृतात्मा! पवित्रामा पागच्छ महणाति! सदा पिच्छिका को रखता है (च) और (उपविश्य भुङ्क्ते) बैठकर खाता है-अर्थात् पाहार ग्रहण करता है। (न उद्दिष्टं) जो उद्दिष्ट नहीं है ऐसो (भिक्षां) भिक्षा को (पाणिपात्रेण) दोनों हाथ रूप पात्र से (श्रावकालये) श्रावक के घर में (गृहणाति) ग्रहण करता है ।
भावार्थ --आचार्य श्री श्रुतसागर मुनिराज ने भी उद्दिष्टत्याग प्रतिमाघारो के दो भेद बताये हैं (१) क्षुल्लक (२) ऐलक । क्षुल्लक एक चादर और एक लंगोट धारण करते हैं तथा जो उद्दिष्ट नहीं है ऐसे आहार को भिक्षावृत्ति से श्रावक के घर में अपने पात्र में बैठकर ग्रहण करते हैं । क्षुलक भोजन के लिये एक थान्नी, दो कटोरी और एक ग्लास इस तरह चार पात्र भी रख सकते हैं तथा शौच के लिये लकड़ी अथवा पीतल का कमण्डलु रखते हैं किन्तु ऐलक लकड़ी का ही कमण्डलु रखते हैं । तया आहार उक्त प्रकार ही भिक्षावृत्ति से अपने पाणिपात्र में बैठकर ग्रहण करते हैं। किन्तु दोनों ही उद्विष्टत्याग प्रतिमाधारी कहल'
अर्थात ये स्वयं श्रावक को कह कर इच्छानुसार भोजन बनवाकर नहीं खा सकते हैं। तथा भोजन के समान अन्य उपकरणों को भी इसी प्रकार जो उहिष्ट नहीं है उन्हें ही ग्रहण करते है ।।१६।।
इत्यादिकं जिनः प्रोक्तं श्रावकाचारमुत्तमम् । यो भयो भावतो नित्यं पालयत्येय दृष्टिभाक् ॥६७।। अच्युतस्वर्गपर्यन्तं स्थानं संप्राप्य शर्मदम् । चक्रधादिभागौषान्समासाद्य शुभोदयात् ॥६८।। क्रमादलत्रयं पूर्ण समाराध्यसुनिर्मलम् । क्षमादिलक्षणैः सारर्दशभिस्सतपोऽखिलैः ।।६।। गुण, लोत्तरेस्सर्वेश्चारित्रैः पञ्चभिः परैः ।
ध्यानाध्ययनकर्माद्यभुक्ते मुक्ति सुखं परम् ॥१००॥
अन्धयार्थ-(इत्यादिक) इत्यादि अनेक प्रकार (श्रावकाचारमुत्तमम् ) श्रेष्ठ श्रावकाचार को (यो भव्योदृष्टिभाक् ) जो भव्यसम्यादष्टि पुरुष (भावतो) भाव से (पालयत्येव) सम्यक् प्रकार पालन करता है (शर्मदम् ) सुखकर (अच्युतस्वर्गपर्यन्तं स्थानं) अच्युत स्वर्ग तक के स्थान को (संप्राप्य ) प्राप्त कर (चक्रवादिभागीधान्) चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि के भोगों को (शुभोदयात् ) पुण्योदय से (समासाद्य) प्राप्तकर (क्रमात्) क्रम से (पूर्ण) पूर्ण (सुनिर्मलं रत्नत्रयं समाराध्य) अति पवित्र रत्नत्रय को सम्यक् आराधना कर (सार: दशभिः) सारभूत दश प्रकार के (क्षमादिलक्षणः) क्षमा आदि लक्षण वाले धर्मों के द्वारा (तपोऽखिल:) सम्पूर्ण अन्तरङ्ग बहिरङ्ग तपों के द्वारा (सर्वेः गुणः मूलोत्तरैः) सम्पूर्ण २८ मूलगुण और ८४ लाख उत्तर गुणों के द्वारा (पञ्चभिः परं: चारित्रः) पांच प्रकार के श्रेष्ठ प्राचारों के द्वारा (ध्यानाध्ययनकर्माद्य :) ध्यान अध्ययन आदि क्रियाओं के द्वारा (पर मुक्ति मुखं) श्रेष्ठ मुक्ति सुख को (भुक्ले) लोगता है, मोक्ष सुख का अनुभव करता है।