Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद]
[४७३
भावार्थ-पापों से मनुष्यों को सर्वत्र भयङ्कर दुःख ही दुःख प्राप्त होते हैं । जैनधर्म ही इनसे बचाने वाला है। यह चिन्तामणिरत्न समान महान कठिन साध्य है। इस प्रकार गुरुराज के वचनामृत का पान कर राजा ने श्रावक के व्रत धारण किये । धर्म की सिद्धि के लिए और सुख पाने की अभिलाषा पूर्ण करने हेतू बह श्रीकान्त महीपति अपने घर चला गया। चला तो गया परन्तु निमित्तों का प्रभाव उसे विचलित किये बिना न रहा ॥१६-१७॥ आगे देखिये---
तानि पालयतस्तस्य दिनः कतिपयर्गतः । पापोदयेन सङ्गोऽभूमिथ्यादृशां तु पापिनाम् ॥१८॥ तेन कुत्सितसङ्गन त्यक्त्वा वृतानि सोऽबुधः ।
लम्पटोऽभूत्तरां पापी मिथ्याष्टिश्च दुर्जनः ॥१६॥
प्रन्ययार्थ--(तानि) उन व्रतों को (पालयत:) पालन करते हुए (कतिपय:) कुछ (दिनैः) दिन (गतैः) व्यतीत होने पर (पापोदयेन) पापकर्म के उदय से (पापिनाम ) पापात्मा (मिथ्यादृशाम्) मिथ्याष्टियों का (सङ्गः) सङ्गति (प्रभूत) हो गई (तु) निश्चय ही (तेन) उस (कुत्सितसङ्गेन) खोटे जन सम्पर्क से (सः) वह (अबुधः) अज्ञानी (प्रतानि) यतों को (त्यक्त्वा) छोड़कर (सराम्) अत्यन्त (सम्पः:) टी (प) और (नियाष्टि:) मिथ्यात्वी (दुर्जनः) दुर्जन (अभूत) हो गया ।
भावार्थ-श्रीकान्त विद्याधर राजा ने जितनी श्रद्धाभक्ति से व्रतों को धारण किया, उतने ही उत्साह और उमङ्ग से पालन भी किया। इस प्रकार व्रत पालन करते हए उसके कुछ दिन महाशान्ति से व्यतीत हो गये । पुनः पाप कर्म के उदय से बह मिथ्यादृष्टि दृष्टजनों की सङ्गति में फंस गया और उनके प्रभाव से व्रतों से च्युत हो गया अर्थात् व्रतों का त्याग कर दिया । यही नहीं पुनः भयङ्कर विषय लम्पटी हो गया । मिथ्यात्व सेवन करने लगा । कञ्चनरूप जिनधर्म का परित्याग कर पीतलरूप मिथ्याधर्म स्वीकार कर लिया। ठीक ही है वाह्य निमित्त भी जीव के हिता हित में कारण होते ही हैं ।।१५, १६।।
अहो व्याघ्रो हि चौराणां वरं सङ्गः कृतो जनः । भक दुःखदो मिश्यादृक् सङ्गोऽनन्त दुःखकृत् ॥२०॥
तभङ्गाज पापेन तेन त्वं राज्य-विच्युतिः ।
जातोऽतः प्राणनाशेऽपि न मोक्तव्यं तमतमम् ॥२१॥
अन्वयार्थ---- (अहो ! ) हो भव्यजन हो (एक) एक (भव) भव (दुःखदः) कष्ट देने वाला (व्याघ्रः) व्याघ-बाघ (चौराणाम् ) तस्करों का (सङ्गः) सहवास (कृतः) किया गया (जनैः) मनुष्यों द्वारा (हि) निश्चय से (बरम् ) श्रेष्ठ है किन्तु (अनन्तदुःख कृत् ) अनन्तों दुःखों को करने वाला (मिथ्यारा) मिथ्या दृष्टियों का (सङ्ग) सङ्गः (न) उत्तम नहीं (तेन)