Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र नवम, परिच्छेद उन मुनिराज को सरोवर में फेंक दिया । पुनः कुछ शुभ विचार प्राने पर उन्हें वापिस निकाल लिया । हे श्रीपाल भूपाल ! सुनो! जीव जैसा कर्म करता है, वह वैसा ही फल प्राप्त करता है। आपने पूर्व भव में मुनीस्वर को फेंका उस पपोतुम्हें व्यपारियों मारापमा विलाल सागर में पड़ना पड़ा । उस घोर पाप का फल कठोर कष्ट तुम पर आयो । पुन: तुमने (श्रीकान्तराजाने) उन श्री मुनि को वापिस निकाल लिया, उस भाब के आगत पुण्यकर्म के उदय से तुम भुजानों से उस घोर सागर को पार करने में समर्थ हुए। हे भव्यो ! आपका सुख-दुःख आपको क्रियानों पर ही आधारित है। जीव स्वयं अपने अज्ञान भाव से दुःखी होता है और अपने ही ज्ञान भाव से सुखी होता है बन्धनमुक्त होता है ।।२६ २७ २८।।
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प्रथ राजन बुराचारो स्वल्पोऽपि प्राणिनां भवेत ।
अनन्तदुःख सन्तानं तस्मात कायां न जातु सः ॥२६॥ अन्वयार्थ-(अर्थ) इसलिए (राजन् ) है भूपेन्द्र ! (स्वरुपः) अल्प (अपि) भी (दुराचार:) दुराचार (प्रोगिणनाम.) प्राणियों को (अनम्तदुःहसतान) अनन्त दुःख परम्परा (भवेत.) होती है (तस्मात ) इसलिए. (सः) बह दुराचार (जासु) कभी भी (म) नहीं (कार्य:) करना चाहिए।