Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद ]
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भावार्थ सेवक द्वारा महादेवी की दुर्दशा और शोकनीय दशा का समाचार सुनकर राजा श्रीकान्त अविलम्ब अपनी प्राणप्रिया के सन्निकट आये। तदनुसार उसे शोकाकुलित, मलिन मुख देखकर उसे सान्त्वना देकर बोले, हे प्राणवल्लभे क्यों दु:खी हैं, मलिन दशा का क्या फरण है ? इतना सुनते ही महादेवी का कोप उग्र हो उठा। वह क्रोधित होकर बोली भो राजन् ऐसी गृहस्थी से कभी भी कोई आशा पूरी नहीं हो सकती यह जजाल है । अत: इसका त्याग कर मैं प्रातःकाल जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूंगी । सुख को देने वाला संयम ही मुझे एक मात्र सहारा है । परीकियों के भोग को है। लीगः रोगी व्यों ज्यों खुजलाता है और क्षणिक सुख को पाता है पुनः तीव्र वेदनानुभव कर व्याकुल होता है उसी प्रकार इन भोगों को भोगने में क्षणिक अल्प सुख सा दृष्टिगत होने लगता है परन्तु दूसरे ही क्षण धोर पीडा और परभव में असह्य यातनाओं को भोगना पडता है । इसलिए पापकर्मों का कारण यह गृहवास छोड़ने ही योग्य है । इनका त्यागना ही सुख का कारण है। मैं अब इसी मार्ग को अपन
इस प्रकार रानी को विज्ञप्ति सुनकर और उसके मन की भावना को परख कर वह श्रीकान्त विद्याधर कहने लगा, हे प्रिये ! तुम शोक मत करो। मैंने दुष्टजनों की सङ्गति से जिनधर्म को छोडा, उन्हीं के सहयोग से अज्ञानवश अमृतसम सुखकारी खतों का परित्याग कर दिया। कुसङ्गवश ही, हे प्रिये ! पापवर्द्धक, दुःखदायी नाना प्रकार को पीडा मुनिराजों को उत्पन्न की है । इससे महापाप उपार्जन किया है भो प्राणवल्लभे तुम इन सभी कुकर्मों को क्षमा करो। मैं सत्य कहता हूँ आज से कभी भी ऐसा पापकर्म नहीं करूंगा। भो भामिनी ! यदि अब से मैं जिनधर्म का पालन न करू तो मेरी कुलपरम्परा के समस्त राजामों में मैं निध-नीच समझा जाऊँ । अर्थात् मुझे मेरे पूर्वजों की शपथ है मैं कभी भी विधर्म व कुधर्म का सेवन नहीं करूंगा। प्राज से निश्चय ही मैं सर्वमान्य जैनधर्म ही पालन करूंगा, जिनशासन का सेवन ही मेरा जीवन उद्देश्य रहेगा । हे प्राणप्रिये ! तुम संयम धारा मत करो। हे सतियों में शिरोमणि ! तुम अपने श्रीगुरु के समीप चलो। मेरे दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त दिलवादो। हे शोभने ! मैं पाप पथ से निकल सकू वही तुम करो।
इस प्रकार पति के वचन सुनकर बह रानी अत्यन्त प्रसन्न हुयी। धर्मात्माजन पाप से ग्लानि करते हैं पापी से नहीं । अत: राजा ने पापों का त्याग कर दिया बस धर्मवत्सला रानी का द्वेष भी समाप्त हो गया । उस समय वह श्रीकान्त भूपाल भी शान्त चित्त हो गया । पुनः अपनी प्रिया के साथ भक्ति से वह राजा जिनालय में गया। जिनमन्दिर भनेकों ध्वजाओं से शोभित था। घण्टानाद हो रहा था । अनेकों प्रकार की मालाएँ लटक रहीं थीं । वेदी में अत्यन्त मनोहर और विशाल जिनबिम्ब विराजमान थे। उन दोनों ने श्रद्धाभक्ति से नम्रीभूत हो तीन परिश्रमा लगायौं, महामहोत्सवों सहित अन्दर प्रवेश किया। नाना प्रकार के शुभ, सुन्दर और पवित्र अष्टद्रव्यों से पूजा की । उत्तम द्रव्यों से अर्चना कर स्तुति की। पुन: मुनिवसतिका में श्री वरबत्तनाम के मुनिराज विराजमान थे। उनके दर्शन किये, नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये । करबद्ध राजा ने प्रार्थना की कि हे भगवन् ! भो मुने ! दुष्ट पापकर्मों के उदय से मैंने श्री जिनोदित धर्म और व्रतों को धारण कर छोड़ दिया। यही नहीं दुर्जनों की कुसङ्गति से निर्दोष वीतराग दिगम्बर मुनिराजों को अनेक प्रकार की यातनाएँ भी दी हैं । अज्ञान भाव से