Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद महाघोरतमं पापं करोषि दुष्ट सङ्गतः ।
तच्छ स्वा पट्टराज्ञी ते तरां शोकाकुलाजनी ॥४०॥
अन्वयार्थ---(तदा) तब उस समय (क्वचित्) कोई समय (भृत्यः) सेवक ने (म्लानमुखम् ) खिन्नमुख (देवीम् ) महिषी को (निरक्षत) देखा (तथा) और (मृपम ) राजा को (असाद्य) प्राप्त कर (पास जा) (इति) इस प्रकार (ग्राख्यत्) सूचना दी कि (नृप देव ! ) हे राजन् (त्वम् ) तुम (धर्मम् ) धर्म को (सूजन्) छोडकर (महाघोरपापम् ) महाभयङ्कर पाप (करोषि) कर रहे हो । दुष्टसङ्गतः) दुर्जन की संगति से (तत्वछ स्वा) यह सब सुनकर (ते) अापकी (पट्टराज्ञी) पटरानी (शोकाकुला) अत्यन्त दुःखी (अजनी) हुयी है ।
भावार्थ---पत्ति के धर्मविरुद्ध प्राचरण को ज्ञात कर महादेवी रानी अत्यन्त शोकाकुलित हुयी । सत्य ही है पतिव्रता नारियों को पति ही परमेश्वर होता है उसके सुख दुःख और भलाई-बुराइयों में उसे भी सुख दुख का अनुभव होता है । अर्थात् पति का शुभ और अशुभ ही वह अपना अच्छा-बुरा मानती है। उसे खिन्न और उदास देखकर उसका कोई प्रिय भक्त सेवक राजा के पास पाया और कहा, हे देव ! अगकी पट्टदेवी प्रत्यन्त शोकाकुल है । उसने आपके जिनधर्म का त्याग और कुजात स्वोकार तथा उससे किये पापा का सुनकर वह पीडित है । - आपके घोर पापों को सुनकर वह बहुत ही शोकाकुल है, संसार से उद्विग्न हो गई है । उसको स्थिति देखी भी नहीं जाती ।।३९, ४०।।
श्रीकान्तोऽपि स भूपालो विद्याधर नराधिपः । तां विलोक्य सतीं शोककुर्वन्तों दुःखभूरिशाम् ।।४१।। सञ्जगाव महादेवि कसं शोको विधियते । त्वयेत्याकर्ण्य सा प्राह भ पति प्रति कोपिता ॥४२॥ भो राजन् गृहवासेनाशा काचिन्न पूर्यते । संयमं संगृहिष्यामि प्रातरेव सुखप्रदम् ॥४३॥ भोगा रोगोपमास्सर्वे त्याज्यन्ते पाप कारिणाम् । इत्यादिकं समाकर्ण्य मत्वा तस्या मनोगतम् ।।४४।। राजा जगाद भो भायें मा त्वया क्रियतां च शुन् । मया दुःसङ्गयोगेन त्यक्त्वा जैन व्रतानि च ॥४५।। चके महामुनीन्द्राणां पीडा पाप प्रवायिनी । यनिमितं कर्म तत्सर्व क्षमस्वत्वमनुग्रहात ॥४६॥ अद्य प्रति चेज्जैन धर्म न पालयाम्यहम् । ततो मत्कुल भूपानां मध्ये निधो भवाम्यहम् ॥४७।।