Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद
मुनिराज को (प्रालोक्य ) देखकर (सः) उस ( भूपतिः) राजा ने ( अयम | यह ( चाण्डालः) चान है (इति) इस प्रकार ( प्रजय) प्रलापकर (नियम) नीच ( पापम) पाप (धात्) किया ( तेन) उस ( मुनेः ) मुनिराज के ( दुर्वाक्वज) दुर्वाक्य से उत्पन्न (पेन) पाप से (पाणैः ) चाण्डालों द्वारा (भवि ) संसार में ( अत्र ) यहाँ ( चाण्डाल : ) चाण्डाल ( घोषित : ) घोषित किया गया ( अहो ) भो भूप ! (इति) इसप्रकार ( मत्वा ) मानकर (क्वचित् ) कभी भी ( दुर्बच: ) खोटा वचन (न) नहीं ( वाच्यम ) बोलना चाहिए ३० ३१३२ ।।
भावार्थ - मुनिराज पुनः कहने लगे हे महीपते। किसी एक दिन उस श्रीकान्त ने महान घोर तपस्वी, उग्रोग्रमहातपश्चरण और भीषण दुर्द्धर परिषहों के सहन करने से श्रग्निदाह से झुलसे वृक्ष के समान उन मुनिराज की क्षीण काया को देखकर कहा, यह चाण्डाल है । इस प्रकार महानिन्ध पापमय वचन कहे। इन कुवाक्यों से उत्पन्न पाप के फलस्वरूप इस भव में चाण्डालों द्वारा आपको चाण्डाल घोषित किया गया । अतः तपस्वियों के प्रति कभी भी दुर्वचन नहीं बोलना चाहिए। तपः पूत साधु-शरीर क्षीण और जल्ल मल्ल युक्त होने पर भी रत्नत्रय से परम पावन होता है। उसे देखकर ग्लानि भी नहीं रना चाहिए फिर कटुवचन का तो दुष्परिणाम होगा ही ।। २६ से २२||
इत्यादिकं दुराचारं प्रभोर्मत्वा तदा द्रुतम् । श्राविकाकाsपि शुद्धात्मा, सती गुणवती भृशम् ||३३||
श्रागत्य श्रीमती प्राह भो देवि त्वत्पतिर्वृथा । मिथ्यास. गेन संत्यज्य जैनधर्मं जगद्धितम् ||३४॥ तथा पीडां मुनोद्राणां चक्रे दुःखशतप्रदाम् । एवं सर्वदुराचारं पत्युः श्रुत्वा महासती ॥ ३५॥। श्रीमती जिनसद्धर्मसंसक्ता वा मुनेर्मतिः जगावित्थमहोगे हावासो वैषयिके सुखे ||३६||
भत्तू पापिनो मूनिवज्र' पततु निश्चितम् । विग्राज्यं धिक् कुराजानं धिग् भोगान् दुःखदायकान् ||३७||
प्रातरुत्थाय जैनेन्द्री बीक्षां दुष्कर्म नाशिनीम् । ग्रहिष्यामीति चोद्वेगं चकार गुणशालिनी ॥३८॥
श्रन्वयार्थ - ( प्रभो ) राजा के ( इत्यादिकम् ) उपर्युक्त प्रकार ( दुराचारम्) दुश्चरित्र को (मत्वा ) ज्ञातकर (काऽपि ) कोई एक (शुद्धात्मा ) सम्यग्दृष्टी (सती) शीलवती (पुराअती ) गुणमण्डिता ( तदा) तब ( भृशम ) अत्यन्त (दुतम ) वेग से ( श्रागत्य ) प्रकर (श्रीमती) श्रीमतो से ( प्राह ) कहा ( भो देवि ! ) हे देवि ! (दृथा ) व्यर्थ ही ( त्वत्पतिः )