Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र नवम् परिच्छेद]
मावार्थ--अवधिज्ञानी मुनिराज उपदेश दे रहे हैं कि हे श्रीपाल नरेश ! तुमने पूर्व जन्म में जिस-जिस प्रकार मुनिराज को निन्दा, अपमान, व दुर्व्यवहार किया, तदनुसार उसका फल यहाँ भोगना पड़ा । मुनिनिन्दा से बढ़कर अन्य कोई बड़ा पाप नहीं है । यह प्राणियों को अनन्न दु:ख परम्पराओं का कारण होता है। अस्तु, कभी भी ज्ञात व अज्ञात अवस्था में साधुनों का अपलाप, अवतार, निन्दाह करावाहिका
ततोऽन्यस्मिन्विने चोरोग्रमहातितपोवजः। अत्यन्तक्षीणसर्वाङ्ग शीतोष्णाविपरिषहैः ॥३०॥ बग्धद ममिवालोक्य तं मुनीन्द्रं स भूपतिः । चाण्डालोऽयं प्रजल्प्येति पानिधं व्यधान्मनेः ॥३१॥ तेन दुर्वाक्यजाघेन, पारणस्त्व घोषितो भूथि ।
चाण्डालोऽश्रेति मत्वाऽहो न वाच्यं दुर्वचः क्वचित् ॥३२॥ अन्वयार्थ---(ततः) इसलिए, किसी (अन्यस्मिन्) दूसरे (दिने) दिन में (उग्रोग्र) धोर (महातितपोव्रजः) महान विविधतपों द्वारा (च) और (शीतोष्णादिपरिषहै:) शीत, उष्ण आदि परीषहों द्वारा (दग्धद्र मः) जले वृध (इष) समान (तम् ) उन (मुनीन्द्रम)