Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र नत्रम् परिच्छेद उस (व्रतभङ्गज) प्रतच्युत से जन्य (पापेन) पाप से (त्वम् ) तुमको ( राज्यविच्युतिः) राज्य भ्रष्टता (जाता) हुयी (अत:) इसलिए (प्रणनाशेऽपि) प्राणनाश होने पर भी (उत्तमम् ) उत्तम (व्रतम.) व्रत को (न मोक्तव्यम ) नहीं छोड़ना चाहिए ।
भावार्थ-जो भव्य जन हो ! व्याघ्र, सिह, विष शस्त्रादि तो एक ही भव में प्राणघातक होते हैं, परन्तु मिथ्यावास-मिथ्यादृष्टि दुर्जनों की सङ्गति भव-भवान्तरों में भी कष्टप्रद होती है । अर्थात् कुसङ्गति से भव-भव में कष्ट देने वाला पापार्जन होता है । पापियों का सहवास पाप ही उपार्जन करायेगा ? जो अनन्तभवों तक कुफल देता रहेगा। हे राजन् श्रीपाल तुमने धारण किये वृतों का परित्याग कर दिया था, इसी कारण राज्यभ्रष्ट हुए । इसीलिए प्राणनाश होने पर भी कभी भी वृत लेकर नहीं छोड़ना चाहिए ॥२०२१।।
अन्यवारण्यमध्यस्थं दिग्वस्त्रालड्कृतं मुनिम् । जल्लादि ऋद्धिसंयुक्त सावधिज्ञान वीक्षरणम् ॥२२॥ विलोक्याशुभ पाकेन कुष्ठीचाऽयमिति ध्र वम् । प्रकाशेत तस्य निन्दा सः भटस्सप्तशतैस्समम् ॥२३॥ तेन दुर्धाक्यजाघेन कुष्ठी जातो भवानिह । अङ्गरक्षभेटैस्सप्तशतैस्सहातिदुःखभाक् ।२४।। प्रतो राजन् न कर्त्तव्यं निन्दा प्राणात्यये क्वचित ।
यतीनां यतो निन्दातनिधःस्याद् स तु भवे-भवे ।।२५।।
अन्वयार्थ—(अन्यदा) किसी समय (अरण्यमध्यस्थम् । अटबी के मध्य स्थित (दिग्व. स्वालकृत) दिशा रूपी वस्त्रों से शोभित (मुनिम् ) मुनिराज को जो(जल्लादिऋद्धिसंयुक्तम् । जल्लोषधि आदि ऋद्धियों के धारी (सावधिज्ञानबीक्षणम्) अवधि ज्ञानरूपी लोचन सहित थे उन्हें (विलोक्य ) देखकर (अशुभपाकेन) अशुभकर्मोदय से (अयम् ) यह (ध्र वम ) निश्चय हो (कुष्ठी) कोढी है (इति) इस प्रकार (भटेसप्तशतसमम.) सात सौ भटों के साथ (स:) उमने (तस्य) उन मुनिराज की (निदाम ) निन्दा अकरोत.) की (तेन) उस (दुर्बाक्यज) कटुवाक्य से उत्पन्न (अधेन) पाप से (भवान्) पाप (ह) इस भव में (कुष्टी) कोढी (जाल:) हुए हो (च) और उन (अङ्गरक्षः) अङ्ग रक्षक (सप्तशतै:) सात सौ (मेट:) सुभटों के (सह) साथ (अति दुःखभाक) अत्यन्त दुःख के पात्र (भवान) पाप ( जातः) हुए (अतः) इसलिए (राजन) भो राजन (प्राणात्यये) प्राण जाने पर भी (क्वचित) कभी भी (यतोनाम्) यतियों की (निन्दा) निन्दा (न) नहीं (कार्तव्यम ) करना चाहिए (यतो) क्योंकि (निन्दात्) निन्दा से (स:) वह मानव (भवे भवे) मत्र-भव में (निद्यः) निन्दनीय (स्यात्) होगा।
मवार्थ---हे राजन थोपाल सुनो, उस धोकान्त राजा ने वृत नियम त्याग दिये । इसके