Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद एक दिन वह अपनी प्रिया श्रीमती के साथ अपने उपवन में रमण करने पोडा करने को आया । भोग-बिलास को गया। परन्तु वहाँ सघन वन में महातपस्वी सुगुप्ताचार्य योगिराज विराजे थे । राजा ने उन्हें देखकर मस्तक झुका सविनय नमस्कार किया ॥१२ १३।।
मुनिस्तं प्रत्युवाचेति राजन् धर्म दयामयम् । घोर संसार दुःखौद्य-पाप सन्ताप नाशकम् ॥१४॥ कुर येन परं सौख्यमिहामुत्र भवेत सताम् ।
केवलं विषयासक्तं पापं मा कुरु चावृतः ॥१५॥
अन्वयार्थ- (मुनिः) दयालु मुनिराज (तं प्रति) उस राजा के प्रति ( उवाज) बोले (राजन) हे भूप! (घोरसंसारदुःखौद्य) भयङ्कर संसार के दुःख समूह (पाप-सन्ताप) पाप सन्ताप को (नाशकम) नाश करने वाले (दयामयम ) दयामयी (धर्मम ) धर्म को (कुरु) करो (इति) बस, (येन) जिसधर्म से (सताम् ) सत्पुरुषों को (इह) इसलोक में (अमुत्र) परलोक में (परमसुखम् ) उत्तममुख (भवेत्। होता है (च) और अवत) अवतों नागों द्वारा (केवलम् ) मात्र (विषयासक्तम् ) विषयों में लीन हो (पापम्) पाप (मा) मत (कुरु) करो ॥१४ १५।।
मावार्थ-परोपकाररत महामुनिराज ने उस राजा श्रीकान्त की प्रवृति को समझ लिया। उस पर दया कर बोले भो भपाल ! आप धर्म का सेवन करिये। जिनेन्द्रोक्त धर्म दयामय है, यह धर्म संसार के घोर दुःस्त्रों से बचाने वाला है। पाप उनकी ताप को शान्त करने वाला सघन मेध समान है । उभय लोक में हितकारक है । सज्जनों को यही एक मात्र आधार है। उत्तम सुख का यह धर्म हो सफल हेतू है । आप प्रवृती होकर पापों स विषयासक्त हो अशुभ कर्मों को मत करो। अर्थात् पाप कर्म छोड़ो । मुख का निमित्त धर्म है इसे ही सेवन करो ॥१४-१५॥
येन पापेन पुसा स्यात् सर्वत्र दुःखमुल्यणम् । जनधर्मस्तु दुष्प्रापश्चिन्तामणिरिद प्रभो ॥१६॥ इति तद् बचसा राजा तं नत्वा श्रावक वृतम् ।
गृहीत्वाधर्मसिद्धयर्थं स्वसौख्याय गृहं ययौ ।।१७।।
अन्वयार्थ-- (येन) जिस (पापेन) पापद्वारा (पुसाम् ) ग्रात्मा को (सर्वत्र) सन जगह (उल्वणम् ) भयङ्कर (दुःख) कष्ट (स्यात्) होगा (जैनधर्मस्तु) जैन धर्म तो (चिन्तामणि: चिन्तामणिरत्न (इव) समान (प्रभो ! ) हे राजन् (दुष्प्रापः) कठिनता से प्राप्त होने वाला है (इति) इस प्रकार (तद् वचसा) मुनिराज बचन से (राजा) पृथिवीपति (श्रावकवतम) श्रावक के व्रत (गृहीत्वा) लेकर (धर्म सिद्धयर्थम्) धर्म की सिद्धि के लिए (स्व. सौख्याय) अपनी सुख अभिलाषा के लिए (गृहम) घर (पयो) चला गया।