Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद]
[४७१ परन्तु भूपति श्रीकान्त केवल अहनिश भोगों में ही प्रासक्त रहता था । वह विषयाध धर्म-कर्म से विहीन था। दोनों दम्पत्तियों की पुण्य-पाप रूप दो धाराएं चलतीं। विरोधी धराएं चलने पर भी रानी अपने धर्मध्यान में अडिग ही रही ।।८ से ११।।
धर्माचारं न जानाति विचारं पुण्यपापयोः । एकदा सः प्रभूप्रीत्या श्रीकान्तः कान्तया समम् ॥१२॥ श्रीमत्या स्वबने रन्तुगतस्तत्र वनेघने
सुगुप्ताचार्य-योगीन्द्रं निरीक्ष्य शिरसाऽनमत् ॥१३॥
अन्वयार्थ--(सः) वह राजा (धर्माचारम ) धर्माचरण (न जानाति) नहीं जानता है (पुण्यपापयोः) पुण्यपाप का (विचारम ) बिचार (न जानाति) नहीं जानता है (एकदा) एक समय (प्रभुः) वह राजा (श्रीकान्तः) श्रीकान्त (प्रात्या) प्रेम से (श्रीमत्या) श्रीमती (कान्तया) प्रिया के (समम ) साथ (स्व) अपने (वने) वन में (रन्तुम) क्रीडा करने (र.तः) गया (तत्र) वहाँ (घने वने) सघन वन में (सुगुप्ताचार्य योगीन्द्रम् ) सुगुप्ताधार्य मुनिराज को 1निरीक्ष्य) देखकर (शिरसा) मस्तक झुका (अनमत्) नमस्कार किया ।।१२, १३॥
मावार्थ--वह श्रीकान्त महाराज धर्माचार और पुण्य पाप के विवेक से शून्य था ।
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