Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद
प्रणीत जो श्रावक वा मुनिधर्म, महाधर्म स्वरूप प्रात्मा के अनन्त चतुष्टयादि को प्रकट करने बाला है (धर्मोअनन्तगुणा करो) जो जिन धर्म अनन्तगुणों का प्राकर-स्थान है (तं) उस धर्म को (मुक्तये) मुक्ति के लिये (स्तुवे) स्तुति करता हूँ।
भावार्थ--प्राचार्य कहते हैं जो जिन धर्म तीन लोक के समस्त प्राणियों को इच्छित फल को देने वाला है, सुखों का खजाना है मुक्ति रूपी वधू को वश करने में समर्थ साधन है तथा प्रात्मा के अनन्त चतुष्टय आदि महाधर्मों को प्रकट करने वाला है, अनन्त गुणों का आकर-स्थान है उस जिनधर्म की मुक्ति के लिये मैं स्तुति करता हूँ।
___ इस प्रकार इस अध्याय के अन्त में यहां श्रावक के व्रतों, धर्मों का स्वरूप बताकर नाना प्रकार से जिनधर्म की स्तुतिकर आचार्य ने व्यवहार धर्म को मुक्ति का साधक बताया है।
इति श्री सिद्धचत्र पूजातिशय प्राप्ते श्रीपाल महाराज चरिते भट्टारक श्रीसकल कीति विचिते श्रीपाल महाराज राज्यलाभधर्म श्रवणवर्णनकर: अष्टमपरिच्छेदः ।।
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति आचार्य विरचित
श्री सिद्धचक्रपूजा के अतिशय को प्राप्त श्रीयाल महाराज चरित के अन्दर श्रीपालमहाराज के राज्य लाभ और धर्मश्नवण का वर्णन करने वाला अष्टम परिच्छेद समाप्त हुआ। "शुभमस्तु" यह सब के लिये मङ्गलकारी होवे ।