Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद
भावार्थ - प्रहिमाण व्रत, सत्याण व्रत, अचौर्याण व्रत, ब्रह्मचर्याणि व्रत और परिग्रह परिमाणत्रत ये पांच प्रणत्र हैं तथा दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्ड व्रत में तीन गुगावत हैं। पुनः सामायिक, प्रोषोपवास और वैयावृत्य और अतिथि संविभाग ये चार शिक्षावत हैं । इन बारह व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला द्वितीय प्रतिभा का धारी श्रावक है ऐसा जिलागम में बताया है ।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह सचय इनका एक देश त्याग करना अर्थात् स्थूल रूप से पांच पापों का त्याग करना अणुव्रत है। ऐसा श्रण तो द्वितीया प्रतिमाधारी श्रावक अपने अहिंसादि अणुव्रतों की सुरक्षा के लिये सप्तशील व्रतों का भी पालन करता है, जिस प्रकार नगर की रक्षा के लिए परकोटा लगाते हैं उसी प्रकार अणवतों की रक्षा के लिये परकोटा के समान उक्त सुप्त श्रीलव्रतों को धारण करना ही चाहिये। कहा भी है।
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परिय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीमात्य पालनीयाणि ॥१३६॥
उक्त सप्तशील व्रतों का स्वरूप निर्देश संक्षेप में इस प्रकार समझें- जीवनपर्यन्त के लिये दशों दिशाओं में आने जाने की मर्यादा कर लेना दिग्वत । पुनः उसमें भी परिमित काल के लिये ग्राम, नदी, पर्वत आदि पर्यन्त आने जाने की जो मर्यादा की जाती है वह देशव्रत है तथा विना प्रयोजन पापास्रव की काररणभूत क्रियाओं को नहीं करना अनर्थदण्ड व्रत है। राग द्वेष की प्रवृत्ति का त्याग कर, समस्त द्रव्यों में साम्यभाव रखते हुए तत्व चिन्तन में मन बचन काय को स्थिर करना सामायिक है । षोडश प्रहर का पर्वकाल में उपवास करना प्रोषधोपवास है। अर्थात् प्रष्ट चतुर्दशी को उपवास करना और उपवास के पहले दिन तथा दूसरे दिन भी एकाशन करना प्रोषधोपवास है । रत्नत्रयधारी व्यक्तियों की इस प्रकार सेवा सुश्रुषा करना जिससे रत्नत्रय में दृढ़ता बनी रहे, यह वैयावृत्त्य है । और यथाविधि उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्र को आहारादि देना प्रतिथि संविभागवत है। इनका निरतिचार शलन सम्यक् प्रकार करना चाहिये। इनके पालन से अण-व्रती के भी उपचार से महाव्रतोपना होता है ऐसा कथन मिलता है। ये व्रत आत्मशुद्धि में साधक है और प्रयत्नपूर्वक ग्राह्य हैं। उक्त १२ व्रतों का सम्यक प्रकार पालन करने वाला द्वितीय प्रतिमाधारी श्रावक है ऐसा जिनागम में बताया है।
अब तृतीय सामायिक प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं -
सामायिकं त्रिसंध्येयं यः करोति विशुद्धधीः । रागद्वेषौ परित्यज्य श्रावकस्सः तृतीयकः ॥८५॥
श्रन्वयार्थ -- (य: विशुद्धधोः ) पवित्र सात्विक बुद्धि का धारो ( रागद्रे पौ) राग द्वेष को (परित्यज्य ) छोड़कर ( त्रिसंयंत्र ) प्रातः मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों संध्याकाल में ( सामायिक करोति) सामायिक करता है (सः) वह ( तृतीयक: श्रावकः) तृतीय प्रतिमा धारी श्रावक है।
भावार्थ सात्विक पवित्र बुद्धिवाला जो श्रावक तीनों संध्या काल में राग द्वेष का त्याग कर मन वचन काय को स्थिर कर सामायिक करता है तत्त्व चिन्तन, आत्म चिन्तन