Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद]
भावार्थ-दिन में मैथुन का त्याग करने वाला तथा स्वदारा में संतोष रखने वाला, विशेष प्रासक्ति नहीं रखने वाला तथा रात्रि में खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय चारों प्रकार के आहार का त्याग करने वाला छठी प्रतिमा का पारी श्रावक है रोटी, चावल, दाल आदि पदार्थ खाद्य हैं तथा पेड़ा, मोदक, पकवान आदि भी खाध हैं, रबड़ी चटनी आदि लेह्म हैं, तांबूल इलायची, सुपारी, लवंग, अन्य औषधादि. स्वाद्य हैं जल, दूध, शर्बत आदि पेय हैं । इन चारों प्रकार के आहार का, मन वचन काय कृत, कारित, अनुमोदना ३ x ३-६ कोटि से त्याग करने वाला रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा धारी है ऐसा जिनागम में कहा है । किन्तु रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमाधारी माता अपने बच्चे को रात्रि में अपना दूध पिला सकती है क्योंकि नवजात शिशु को यदि दूध न पिलाया जाय तो वह मर जायेगा, उसके जीवन का रक्षण करना माता का कर्तव्य है। अब ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारी का स्वरूप बताते हैं---
विरक्त स्त्रीसुखे नित्यं ब्रह्मचर्यवतंशुभम् ।
यो विधत्ते विशुद्धात्मा सदाऽसौ सप्तमो मतः ॥६॥ अन्वयार्थ ... (यो) जो (विरलागतीखे नित्यं ली मुख हा हानि या विरक्ति भाव रखने वाला है (असी) वह (विशुद्धास्मा) विशुद्धारमा (शुभं) श्रेष्ठ (ब्रह्मचर्यव्रत विधत्ते) ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करता है वहीं (सप्तमोमतः) सप्तम प्रतिमाधारी माना जाता है।
भावार्थ:-आजीवन नव कोटि से मैथुन का त्याग करने वाला, ब्रह्मचर्य व्रत का धारी विशुद्वात्मा स्त्रो मुख में सदा विरत रहता है, शरीर शृङ्गारादि क्रियायों में सदा उदासीन रहने वाला वह व्रती श्रावक सप्तम प्रतिमाधारी कहलाता है ।।१६॥ अब आरम्भ त्याग प्रतिमा का स्वरूप बताते हैं---
सेवाकृष्यावि वाणिज्य प्रारम्भं न करोति यः ।
हिंसा हे तु दयामूर्तिस्स भवेदष्टमस्सुधीः ॥१०॥ अन्वयार्थ -- (हिंसा हेतु ) हिंसा का हेतु अर्थात् जीव हिंसा के कारण (सेवाकृष्यादिबाणिज्यप्रारम्भं) नौकरी, खेती, व्यापारादि आरम्भ के कार्यों को (यः न करोति) जो नहीं करता है (स) वह (सुधीः) विवेकवान्, सम्यग्ज्ञानी (दयाभूति) दया की मूर्ति (अष्टम:भवेत्) अष्टम प्रतिमाधारी है।
भावार्थ-प्रारम्भ त्याग प्रतिमाधारी धात्रक घर के झाडू बुहारी, कूटना, पीसना आदि कार्यों को प्रथवा नौकरी, खेती व्यापारादि कार्यों को नहीं करता है अर्थात् हिंसा के कारण भुत क्रियाओं का सर्वथा त्यागी होता है। जिनेन्द्रप्रभु की पूजा प्रादि धर्मकार्यों में भाग ले सकता है। पूजा के द्रव्यधोना, जिनालय को झाड़ बुहार कर स्वच्छ करना आदि कार्य वह कर सकता है तथा अपने वस्त्र को स्वयं धो सकता है बह भी इस प्रकार कि जीव विराधना न होने अर्थात् बिबेक पूर्वक समिति पूर्वक ही कार्य करता है ।