Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
[ थोपाल घरित्र अष्टम परिच्छेद आदि को (इन्द्रपदं च असाय) और इन्द्र के पद को प्राप्त कर (मुक्तिजं सुखं) मोक्ष संबंधी शाश्वत सुख को (लभन्ते) प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-श्री जिनेन्द्र प्रभु के पञ्चामृत अभिषेक, पूजा, स्तवन, जप आदि करने से जोव उत्तमोत्तम सुखों को अनायास प्राप्त कर लेता है इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए यहाँ आचार्य लिखते हैं कि जो जिनेन्द्र प्रभु का पञ्चामत अभिषेक करते हैं वे देवों के द्वारा स्वयं अभिषिक्त होते हैं अर्थात् कालान्तर में वह स्वयं भी तीर्थकर हो सकता है और इन्द्रादि देवों के द्वारा सुमेरु पर्वत पर अभिषिक्त किया जाता है। जिनेन्द्र प्रभु की पूजा जन्म जन्मातरों के पाप समूह को नष्ट करने वाली है उस जिन पूजा के फलस्वरूप लौकिक सम्पदायें भी उसे पुण्य से सहज प्राप्त हो जाती हैं पुण्य से ही चक्रवर्ती की सम्पदा को तथा सुखदायक पुत्र, मित्र, कलत्र आदि को भी प्राप्त करता है इस प्रकार जिनभक्ति के प्रभाव से भव्यपुरुष इन्द्रादि के पद का प्राप्त कर क्रमशः शाश्वत मोक्ष सुख को भी पा लेते हैं ।।६५ से ६८॥
अन्से भव्यः प्रकर्तव्या धोरस्सल्लेखना विधिः । सर्वकर्मक्षयंकरा दाता स्वर्गापवर्गयोः ॥६६॥ तथैकादश भो भव्य ! भूपते प्रतिमाश्शुभाः।
श्रावकानां भवन्स्येवं श्रृण त्वं तास्समुच्यते ।।७।।
अन्वयार्थ-(भव्यः) भव्यपुरुषों को (धोरं:) धैर्यशाली व्यक्तियों को (सर्बकर्मक्षयं करा) समस्त कर्मो का क्षय करने वाली (स्वर्गापवर्गयो: दाता) स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली (सल्लेखना विधिः प्रकतंत्र्या) विधिपूर्वक सल्लेखना करनी चाहिए (तथा) तथा (भो भव्य !) हे भव्य पुरुष! (भूाते ! ) हे राजन् (श्रावकानां) श्रावकों की (शुभा:) श्रेयकारो (एकादश प्रतिमा: समुच्यते) ग्यारह प्रतिमा रूप व्रतों को कहते हैं (ताः) उन्हें (त्वं शृण ) तुम सुनो।
भावार्थ---अन्त में धीर बीर उन भव्यपुरुषों को समस्त कर्मों का क्षय करने वाली, स्वर्ग और मोक्ष सुख को देने वाली सल्लेखनारिधि का प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिये अर्थात् सल्लेखना पूर्वक शरीर का परित्याग करना चाहिये ।
अले प्रकार काय और कषाय के कारणों को घिसना, कम करना सल्लेखना है अथवा रागद्वेष विभाव परिणाम जो संसार वर्धक हैं उन्हें कम करना एवं शरीर, बन्धु बान्धव वा समस्त परिग्रह से ममत्व भाव हटाना सल्लेखना है । पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में सल्लेखना का स्वरूप इस प्रकार बदाया है--
"इयमेव समर्था धर्मस्व मे मया समं नेतुम ।
सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।।१७।।पु.।।
अर्थात् यह सल्लेखना काय के साथ कपायों को कृश करना ही मेरे धर्म रूपी द्रव्य को भवान्तर में मेरे साथ ले जाने में समर्थ है । इस प्रकार निरन्तर भक्तिपूर्वक मरणकाल में