Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र भ्रष्टम परिच्छेद ]
रत्नस्वर्णमयोश्चापि प्रतिमाः पापनाशनाः ।
ये कारयन्ति सद्भव्याः शास्त्रोक्त विधिना शुभाः ।। ६३ ।।
पञ्चकल्याणकोपेताः पवित्राः भुवनत्रये ।
ते सम्यग्दृष्टयो लोके लभन्ते परमं सुखम् ॥६४॥
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अन्वयार्थ - (ये सद्भव्याः ) जो उत्तम भव्यपुरुष ( शास्त्रोक्त विधिना ) शास्त्रोक्त विधि से (शुभाः) सुन्दर, मनोज्ञ ( पापनाशनाः) पाप नाशक ( रत्नस्वणमयी: प्रतिमा: चापि ) रत्नमयी और सुवर्णमयी जिनप्रतिमाओं को भी ( कारयन्ति) प्रतिष्ठित करते हैं, विराजमान करते हैं (ते) वे ( सम्यग्दृष्टयो । सम्यग्दृष्टि पुरुष ( लोके) संसार में (भुवनत्रये परमं सुखं ) तीन लोक में जो सर्वोत्तम मोक्षसुख है उसको ( लभन्ते ) प्राप्त कर लेते हैं ।
भावार्थ - जो भव्य पुरुष जिनालय में शास्त्रोक्त विधि से रत्नमयी, सुवर्णमयी अथवा श्रेष्ठ धातुओं से बनी हुई उत्तम पाषाण से बनी हुई जिन प्रतिमाओं की पञ्चकल्याण प्रतिष्ठा कराकर मन्दिर में विराजमान करता है वह भव्य पुण्यशाली जीव, तीन लोक में सर्वोत्तम जो मोक्ष सुख है उसको शीघ्र प्राप्त कर लेता है ।। ६३, ६४ ।।
श्रीमज्जिनेन्द्राणां महास्नपनमुत्तमम् ।
पातं प्रकुर्वन्ति स्नाप्यन्ते सुरैरपि ॥ ६५ ॥ ये च श्रीमज्जिनेन्द्राणां पूजां पाप प्रणाशिनीम् । प्रकुर्वन्ति तदा भव्या जलार्धस्सार वस्तुभिः ||६६॥ संस्तुति च तथा जाप्यं सर्वसम्पद् विधायकम् । ते च भव्या जगत्सारं धनं धान्यं सुसम्पदम् ॥६७॥ पुत्र मित्र कलादि सन्तानं शर्मदायकम् । इन्द्रादिपदमासाद्य लभन्ते मुक्तिजं सुखम् ॥ ६६ ॥
अन्वयार्थ – ( ये ) जो ( श्रीमज्जिनेन्द्राणां ) श्री जिनेन्द्र प्रभु का ( उत्तमम् ) श्रेष्ठ अर्थात विधिवत् (पञ्चामृतं महास्नपनं ) पञ्चामृत अभिषेक ( प्रकुर्वन्ति ) करते हैं (ते ) वे (सुरैरपि ) देवों के द्वारा भी ( स्नाप्यन्ते) प्रभिषिक्त होते हैं । (च) और ( ये ) जो ( भव्याः ) भव्य पुरुष (जला : सारवस्तुभिः) जलादि सार भूत वस्तुओं से (पापप्रणाशिनी) पारनाशनीपाप का समूल नाशकर देने वाली (श्रीमज्जिनेन्द्राणां ) श्री जिनेन्द्र प्रभु की (पूजां प्रकुर्वन्ति ) पूजा करते हैं (तथा) तथा ( सर्वसम्पद् विधायकम) सम्पूर्ण सम्पत्तियों को सहज प्रदान करने बाली (संस्तुति) जिप को (प्रकुर्वन्ति) करते हैं (ते भव्याः ) वे भव्य पुरुष (जगत्सार) जगत की सारभूत ( सुसम्पदं ) मुसम्पत्ति उत्तम सम्पत्ति को ( धनं धान्यं) धन धान्य को ( शर्मदायक) सुखदायक (पुत्र मित्रकलत्रादि सन्तानं ) पुत्र, मित्र, पत्नी, सन्तान