Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ]
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करने वाली कषाय है। इसलिये सरल एवं शुद्धि-विकार रहित परिणाम रखना अति आवश्यक है।
(४) ईर्ष्याभाव नहीं होना चाहिए। यथा-किसी दूसरे ने मुनिराज को आहर दान दिया और हम नहीं दे सके तो उसे देखकर उस देने वाले से ईर्ष्या करना कि इसके यहाँ क्यों आहार हो गया अथवा इसने तो केवल मांढ़ का पाहार दिया है मैं कल दूध आदि बहुमूल्य पदार्थों का दान दूंगा फिर इसकी अपेक्षा मुझे अधिक यश मिलेगा, इस प्रकार दूसरे दाता से ईर्ष्याभाव धारण करना असुया कहलाती है और कैसा भाव नहीं करना अनुसूया कहलाती है । जब निरपेक्ष शुद्धभाव से स्वपर कल्याण के लिये दान देने का उद्देश्य है तो दूसरे को देते हुए भी देखकर हर्षभाव धारण करना चाहिये।
(५) किसी कारण के उपस्थित होने पर भी खेद नहीं करना किसी अन्तराय के हो जाने से मुनियों का यदि आहार न हो सके अथवा अपने यहाँ उनका आना ही न हो सके तो विषाद-खेद नहीं करना चाहिए । बिना कारण खेद करके पाप बन्ध करना मूर्खता है।
(६) दान देकर हर्ष होना चाहिये--प्राज मेरे उत्तम पात्र का माहार हो गया है, मुझे अनेक गुणों का लाभ हो गया है। मेरे यहाँ आज उत्तम पात्र के चरण पधारे हैं, मेरा घर आज पवित्र हो चुका और मैं अपने को धन्यभाग्य समझता हूँ। इस रीति से हर्ष मानना धर्म की दृढ़ता एवं भक्ति का परिणाम है।
(७) दान देने पर मान नहीं करना चाहिए, यह भाव हृदय में कभी नहीं लाना चाहिए कि मेरे यहाँ मनिराज का अथवा ऐलक महाराज का आहार दान हो गया है. दूसरे पड़ोसी के यहाँ नहीं हुआ है । इसलिये मैं ऊँचा हूँ, यह नीचा है । सरल एवं विनय भावों से रहना ही दाता का सद्गुण है । ये सात गुण दाता में रहने चाहिए, बिना इन गुरगों के दाता का महत्व नहीं है और न वह बिशेष पुण्य का लाभ करता है। सप्त गुणों से रहित जो भव्य पुरुष बहुत भक्ति पूर्वक आहार दान देते हैं वे देवेन्द्रादि के पद को तथा चक्रवर्ती आदि के सारभूत सुखों को सहज प्राप्त कर क्रम से निर्वाण सुख को भी प्राप्त करते हैं ॥४३॥
प्रतिग्रहोच्चस्संस्थानं पादक्षालनमर्चनम् । नतिश्चान्न त्रियोगेषु शुद्धया नवविधञ्च तत् ॥४४।। श्रद्धाभक्तिश्चतुष्टिश्च सद्विज्ञानमलुब्धकः ।
क्षमासत्वञ्च सप्तेति गुणाः दातु प्रकीर्तितः ॥४५।। अन्वयार्थ---(प्रतिग्रहोच्चस्संस्थानं) पड़गाहन करना उच्चस्थान देना (पादक्षालन) पद प्रक्षालन (अर्चनम् ) पूजा (नतिः) नमस्कार (च) और ( अन्न त्रियोगेषु शुद्धया) भोजन
शुद्धि, त्रियोगद्धि-मन शूद्धि, बचनशुद्धि और कायशुद्धि रूप (नव विधञ्च सत्) नव प्रकार . की वह दानविधि है । (श्रद्धाभक्तिश्चतुष्टिश्च) श्रद्धा, भक्ति, और संतोष (सद्विज्ञानमलुब्धक:)