Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
[ ४४३
श्रीपाल चरित्र प्रष्टम परिच्छेद]
अन्वयार्ग---(सं प्राप्ते निघाने) धन वैभव के प्राप्त होने पर (वा) जैसे बहुत प्रानन्द होता है उसी प्रकार (महापात्र समायाते) श्रेष्ठ उत्तम पात्र के शुभ प्रागमन होने पर (यो दाता) जो दाता (तराम संतुष्टो) बहुत सन्तुष्ट (भवेत्) होता है (वह) (तुष्टिवान् मतः) संतोष गुण से युक्त तुष्टिवान् दाता है ।
भावार्थ--जैसे जीव धन के मिलने पर बहुत सन्तोष अर्थात् सुख का अनुभव करता है उसी प्रकार जो दाता, श्रेष्ठ तपस्वीजनों के अर्थात् उत्तम महापात्र के शुभागमन होने पर बहुत सन्तुष्ट वा मानन्दित होता है प्राचार्य कहते हैं कि ऐसे दाता को ही संतोष गुण का धारी सन्तुष्टिवान् कहा गया है ।।४।।
अभिप्रायं सुपात्रस्य कालदेशवयोगुणम् ।
जानाति यो दयायुक्तस्स दाता ज्ञानवान् भवेत् ॥४६॥ प्रासादा --- (काल देपाव्योगणम् काल, देश, वय-आयू तथा गुण को तथा (सुपात्रस्य अभिप्राय) सूपात्र के अभिप्राय को (दयायुक्तः यो दाता) दयाशील जो दाता (जानाति) जानता है (स) वह (ज्ञानवान् भवेत्) ज्ञानवान् होता है।
भावार्थ--बही दाता श्रेष्ठ और ज्ञानवान् कहा गया है जो काल, देश आयु तथा पात्र की प्रकृति और उसके अभिप्राय को जानता है तथा दयावान है । जीव विराधना से जो भयभीत रहता है वह दाता ही समिति पूर्वक गृह कार्यों को करता हुआ शुद्ध प्राहार तैयार कर सकता है अत: दाता में दयागुण भी होना ही चाहिये । दयाशील जो दाता द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव का विचार करते हुए योग्य आहार, पात्र के लिये देता है यही ज्ञानवान विवेकवान् श्रेष्ठ दाता है। ऐसा आगम में कहा गया है।
कार्यराज्यादिकं मेऽयं करिष्यति महामुनिः ।
धाञ्छति दानफेनैव यस्य यस्मादलुब्धकः ॥५०॥
अन्वयार्थ-(अयम् महामुनिः) ये महामुनि (मे राज्यादिकं कार्य) मेरे राज्यादि कार्य को (करिष्यति ) कर देंगे (इति) इस प्रकार (दान के) दान में (यस्य वाञ्छा न एव) जिसके निश्चय से वाञ्छा नहीं है बह (यस्मात्) लोभ न होने से (अलुब्धकः) अलुब्धक - निर्लोभी है।
भावार्थ---जो दाता अपने राज्यादि कार्यों को सिद्धि के लिये, अथवा धन सम्पत्ति की इच्छा से अथवा सांसारिक सूत्र की बाच्छा रखकर मनिराज को आहार देता है वह लोभी है। जिस में ऐसी कोई वाञ्छा नहीं होती है वह अलुब्धक निर्लोभी दाता ही श्रेष्ठ दाता है ऐसा जिनागम में बताया है ।।५०।। ,
सान कालेकृते दोषे सुताकान्तादिभिश्च यः । नैव दुप्यति पूतात्मा क्षमावान् स बुधर्मतः ॥५१॥