Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद विवेक, निर्लोभता (क्षमासत्वञ्च) क्षमा और उदारता (दातुः) दाता के (सप्तेति गुणाः प्रकोर्तितः) ये सात गुण कहे गये हैं।
भावार्थ-दान की विधि के नब ग्रावश्यक अङ्ग हैं । जिसे नवधाभक्ति कहते हैं । १. प्रतिग्रह -पड़गाहन, २. उच्चस्थान समर्पण, ३. पदप्रक्षालन, ४. पूजा, ५. नमस्कार ६. आहार शुद्धि, ७. मन शुद्धि ८. बचनशुद्धि ह. कायशुद्धि पुनः दाता के सात गुणों का नामोल्लेख करते हुए यहाँ आचार्य कहते हैं-१. श्रद्धा २. भक्ति ३. सन्तोष ४. सद्विज्ञान-विवेक, ५. निलोभता, ६. क्षमा ७. सत्व-उदारता ये सात गुणों से युक्त दाता ही श्रेष्ठ दाता है । दाता के उपर्युक्त सात गुण जिनागम में बताये गये हैं जिनका उल्लेख पहले कर चुके है । प्रत्येक का स्वरूपोल्लेख आचार्य प्रागे और भी करते हैं ।।४५।।
पात्रं मे गृहमायातु तस्मै दानं दवाम्यहम् ।
इत्याशयो भवेदत्र श्रद्धावान् स प्रकीर्तितः ॥४६॥ अन्वयार्थ----(मे गृहं) मेरे धर को (पानं पायातु) पात्र पावें, अथवा मुनिराज पावें (तस्मै) उनके लिये (अहम् दानं ददामि) में दान देता हूँ (इत्याशयो) इस प्रकार का भावपरिणाम (भवेत्) होना चाहिये (अत्र) यहाँ (स) उक्त प्रकार के परिणाम को धारण करने वाला वह दाता (श्रद्धावान्) श्रद्धालु (प्रकीर्तितः) कहा गया है।
भावार्य--मेरे घर अधिक से अधिक पाने सर्थात उत्तम, मध्यम, जघन्य सभी प्रकार के पात्र आहारार्थ पधारें तो मैं अपने को धन्य समझूगा । इस प्रकार की भावना जिनके पाई जावें वे श्रद्धालु-श्रद्धावान् हैं ऐसा जिनागम में कहा गया है ।।४६।।
सम्पूर्णाहार-पर्यन्तं भक्ति कुर्वन गुरोस्सुधीः ।
पार्वे संतिष्ठते योऽसौ भक्तिनान् श्रावकोत्तमः ॥४७॥
अन्ययाधं--(सम्पूर्णाहार पर्यन्तं) आहार पूरा होने तक (गुरो:) गुरु की (भषितं कुर्वन्) भक्ति करता हुआ अर्थात् आहार देने में पूरी सावधानी रखता हुआ (यो) जो (पार्श्व संतिष्ठते) यास में सम्यक् प्रकार ठहरता है--स्थिर रहता है (असौ) वह (श्रावकोत्तम) श्रेष्ठ श्रावक (भक्तिमान् ) भक्तिमान है ।
मावार्थ -जब तक मुनिराज का प्राहार पूरा नहीं होता है तब तक निरन्तर सावधानी और भक्तिपूर्वक प्राहार देता हुना जो श्रावक पास में सम्यक् प्रकार ठहरता है, निरन्तर गुरु को भक्ति करता रहे, वह श्रावकोत्तम है, भक्तिमान् श्रेष्ठ दाता है ।।४७।।
समायाते महापात्रे संतुष्टो यो भवेत्तराम् । संप्राप्ते या निधाने च दाता तुष्टिवान् मतः ।।४।।