Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद
अन्वयार्थ - ( सुताकान्वादिभिः ) पुत्रो, पत्नी यादि के द्वारा ( दानकाले ) दान देते समय ( दोषेकृते) दोष हो जाने पर ( यः पूतात्मा ) जो पवित्रात्मा (नैवः कुप्यति ) निश्चय से क्रोध नहीं करता है ( स क्षमावान् ) वह क्षमावान् है ( बुधः मतः ) गणधरादि बुधजनों का ऐसा कथन है ।
भावार्थ-पुत्री, पत्नी आदि के द्वारा दान देते समय दोष हो जाने पर जो पवित्रात्मा निश्चय से क्रोध नहीं करता है वही क्षमावान् है ऐसा बुध जनों अर्थात् गणधरादि देवों ने कहा है ||२१||
साधिके च व्यये जाते, यो गम्भीरस्समुद्रवत् ।
स दाता सत्त्ववान् सूरि, सत्तमं परिकीर्तितः ॥५२॥
अन्वयार्थ --- (च) और ( साधिके व्ययेजाते ) अधिक खर्च हो जाने पर ( यो ) जो ( समुद्रवत् ) समुद्र के समान ( गम्भीर :) गम्भीर रहता है ( स दाता) वह दाता ( सत्त्ववान् ) उदार चित्तवाला है ऐसा (सत्तमं ) श्रेष्ठ गणधरादि देवों के द्वारा (परिकीर्तितः) कहा गया है ।
भावार्थ ---- किसी कारणवश अधिक खर्च हो जाने पर भी जो दाता व खिन्न या कति नहीं होता है, समुद्र के समान सदा गम्भीर रहता है वह दाता उदारचित्त वाला है ऐसा श्रष्ठ गणधरादि देवों ने कहा है ||१२||
एवं त्रिविधपात्रेभ्यो अन्नदानं प्रकुर्वते ।
ते भव्या सुख संदोहं संलभन्ते पदे पदे ॥ ५३ ॥
अन्वयार्थ - - ( एवं ) इस प्रकार (त्रिविध पात्रेभ्यो ) तीन प्रकार के पात्रों के लिये जो ( अन्नदानं प्रकुर्वते ) अन्न दान करते हैं (ते भव्याः ) वे भव्यपुरुष ( सुखसंदोह ) सुख समूह को अथवा यथेष्ट सुखों को ( पदे पदे ) पद पद पर (संलभन्ते ) सहज प्राप्त कर लेते हैं ।
भावार्थ -- सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित उत्तम, मध्यम जघन्य तीन प्रकार के पात्रों को जो आहार दान करते हैं वे भव्य पुरुष यथेष्ट सुखों को पद पद पर अर्थात् सर्वत्र सहज प्राप्त कर लेते हैं ||५३॥
शुद्ध रत्नत्रयोपेतो यो मुनिस्तु दयापरः ।
उत्तमं संभवेत्पात्रं यानपात्रोपमं शुभम् ||५४ ॥
अन्वयार्थ - ( यो शुद्धरत्नत्रयोपेतो ) जो पवित्र रत्नत्रय से सहित ( दयापरः) उत्तम दया भाव सहित (यानपात्रोपमं) भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार करने के लिये जहाज के समान (शुभम् ) परमहितकारी हैं वे ( उत्तमं पार्थ) उत्तम पात्र हैं ऐसा ( संभवेत् ) समझना चाहिये ।
भावार्थ - जो परम दयावान् तथा पवित्र सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र