Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र भ्रष्टम परिच्छेद 1
सर्वव्रत क्रियासार दानपूजा तपस्सु च ।
तत् सम्यक्त्वं बुधैर्मोक्तं श्रृंगारं रत्नहारवत् ||२८||
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अन्वयार्थ - ( दोष निर्मुक्तः ) दोष रहित अर्थात क्षुधा, तृषा, जरा आदि अठारह दोषों से मुक्त (अन) घातिया कर्म से रहित अर्हन्त परमेष्ठी ( देवः ) सच्चे देव हैं 1 ( सद्धर्मोदशधा ) क्षमा, मार्दवादि १० प्रकार के उत्तमधर्म हैं (निन्थो ) जो वाह्य श्राभ्यन्तरपरिग्रह से रहित 'न साधु हैं (अस) वही ( गुरु: ) सच्चा गुरु है ( इति श्रद्धा ) इस प्रकार हह श्रद्धान होना ( सम्यक्त्वं उच्यते ) सम्यग्दर्शन है ऐसा जिनागम में कथन है। ( सर्वत्रत किया दान पूजातपस्सु ) सम्पूर्ण व्रत आचरण चारित्र, दान, पूजा और तपों सारभूत प्रधान ( तत् सम्यक्त्वं ) वह सम्यग्दर्शन है । ( रत्नहारवत् श्रृंगारं) रत्नमय हार के समान शोभावर्धक है ऐसा ( बुधैः प्रोक्तं ) विद्वानों ने कहा है ।
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भावार्थ - जो वीतरागी, सर्वज्ञ हितोपदेशी है तथा अठारह दोषों से रहित हैं वे ही प्राप्त देव हैं । "नियमसार" में श्राचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं
"छत"हमी रूसो रागो मोहो चिन्ता जरा रूजा मिच्चू । सेदं खेदं मदो रद्द विम्यिरिणद्दा जण ब्वेगो ।।”
"जो क्षुधा, तृषा, भीरुता, रोष, राग, मोह, चिन्ता, जन्म जरा मृत्यु रोग, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा और उद्वेग इन अठारह दोषों से रहित होते हैं ऐसे आप्त-अरहन्त परमेष्ठी हैं ।” पुनः जो जीवों को जन्म, जरा मृत्यु के दुःखों से छुड़ा कर उत्तम मोक्ष सुख को प्रदान करता है वही सच्चा धर्म है जो दस प्रकार का है। उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये १० धर्म ही इस जीव को संसार दुःखों से बचाने वाले हैं। इसी प्रकार जो बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं सदा ज्ञान, ध्यान तप में अनुरक्त रहते हैं वे ही सच्चे गुरु हैं । "नियमसार" में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी कहा है
"वावार विमुक्का च उब्विा राहणासयारत्ता । fiथा निम्मोहा साहूते एरिसा होंति ।।"
जो पञ्चेन्द्रिय विषय व्यापार से सर्वथा विरत हैं तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चार प्राराधनाओं के पालन में सदा रत रहते हैं। मोह रूपी ग्रन्थी को खोलने वाले तथा समस्त परिग्रहों के त्यागी हैं वे ही सच्चे गुरु हैं, साधु हैं ।
इसी प्रकार ग्रागम भी वही हो सकता है जो जिन प्रणीत है तथा पूर्वापर दोष से रहित है अर्थात् जिसमें पूर्वापर विरोध नहीं पाया जाता है ऐसा सर्वज्ञ कथित श्रागम ही सच्चा आगम है । इन पर दृढ़ श्रद्धान रहना सम्यग्दर्शन है ।
सम्पूर्ण व्रत तथा धर्मकार्य दान, पूजा, तप श्रादि का सार सम्यग्दर्शन है क्योंकि