Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रोपान चरित्र अष्टम परिच्छेद
सम्यक्त्व पूर्वक किया गया प्रत, दान, पूजा, नप आदि ही मुक्ति में साधक है तथा प्रात्मशुद्धि में समर्थकारण है । अत: आत्मा की शोभा सम्यग्दर्शन से है। वह सम्यग्दर्शन रत्नहार के समान प्रात्म का अलङ्कार प्राभूषण है ॥२८॥
तेन युक्तो महाभव्य समुत्तीर्य भवार्णवम् ।
स दुर्गत्यादिकं हित्वा क्रमात् स्वर्मोक्षभाग्भवेत् ॥२६॥
अन्वयार्थ - (नेन युक्नो) उस सम्यग्दर्शन से सहित (महाभव्य) महान भव्य पुरुष (भवार्णवम्) संसार रूपी समुद्र को (समुतीर्य) पारकर (दुर्गत्यादिकं हित्वा) दुर्गनि आदि का नाश कर अर्थात् नरक तिर्यञ्च आदि कुगति को दूर कर (क्रमात्) ऋम से (स्वर्मोक्षभाग्भवेत्) स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ -सम्यम्दृष्टि महाभव्य-निकट भव्य जोव, सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक तियंञ्च भयङ्कर दुःखों मे छट जाता है तथा संसार रूपी समुद्र को शीघ्र पार कर लेता है । प्रथमत: नरक और तिर्थञ्च गति का नाश कर फिर क्रम से स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त होता है ।।२६।।
अहिपात्र सजीवानां पालनीया सुखाथिभिः ।
सांकल्पिकं परित्यज्याहिंसा पक्षोऽयत्ताः !!३०॥ अन्वयार्थ (सुखाथिभिः) सुख चाहने वाले जीवों को (अव) यहाँ (मजीवानां अहिंसा) समस्त प्राणियों के रक्षण रूप अहिंसा को (पालनीया) पालना चाहिये (सांकल्पिक परित्यज्य) संकल्पी हिंसा का त्याग कर (अयम् उत्तमः) यह उत्तम (अहिंसा पक्षो) अहिंसापक्ष वा धर्म (पालनीया) पालन करने योग्य है ।
भावार्थ-प्राणीमात्र के प्रति रक्षण का भाव होना अहिंसा है। सुख के इच्छक गृहस्थ को संकल्लो हिंसा का त्याग कर उस उत्तम अहिंसा धर्म का पालन करना ही चाहिये ।३०॥
प्रसत्यं दूरतस्स्याज्यं परद्रव्यच्च सर्वथा।
परस्त्रियं परित्यज्य कार्यस्तोषः स्वयोषिति ॥३१॥ अन्वयार्थ-(दूरतः) दूर से अर्थात् हर प्रकार से (असत्यं परद्रव्यं च) असत्य वचन और परद्रव्यहरण रूप चोरी को (त्याज्यम्) छोड़ देना चाहिये (परस्त्रियं सर्वथा परित्यज्य) परस्त्री के मेवन का सर्वथा त्याग कर (स्क्योषिक्ति) अपनो स्त्री में (तोष : कार्य:) सन्तोष रखना चाहिये।
मावा - सम्यग्दृष्टि श्रावकों को असत्य वचन, परद्रव्यहरण रूप चोरी का भी दूर से ही त्याग कर देना चाहिय । तथा पर स्त्रो के सेवन का सर्वथा त्याग कर अपनी स्त्रो में ही सन्तोष रखना चाहिये ।।३६।।