Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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॥ अथ अष्टम परिच्छेदः ॥
अकस्मिन् दिने सोऽपि श्रीपालः पृथिवीपतिः । सभायां संस्थितो धीमान् सिंहासनमधिष्ठितः ॥११॥ वीज्यमानस्तिश्चारुचामरैर्वा महेश्वरः । सेव्यमानस्तुरैर्वोच्चैः परं भूयोविभूतिभिः ॥ २ ॥
श्रन्वयार्थ --- ( अथ ) इसके बाद ( पृथिवीपतिः सो श्रीमान् श्रीपाल : ) पृथ्वीपती वह बुद्धिमान श्रीपाल ( एकस्मिन् दिने ) एक दिन ( सभायां ) सभा में ( सिंहासनमधिष्ठितः ) सिंहासन पर बैठा था ( बीज्यमानः सितैः चारुचामर: ) ढोले जाते हुए श्रेष्ठ चमरों से उच्चैः परैः) प्रति उत्तम ( भूयो विभूतिभिः) बहुत विभूतियों के साथ ( संस्थितो) विराजमान श्रीपाल ( सुरैः सेव्यमानः ) देवों के द्वारा सेवमान (महेश्वर: बा ) महेश्वर इन्द्र के समान प्रतीत होता था ।
भावार्थ सुख पूर्वक राज्य करता हुआ वह बुद्धिमान श्रीपाल राजा एक दिन सभा में सिहासन पर बैठा था। श्वेत चामर जिसके ऊपर ढोले जा रहे थे और देवों के समान महान विभूतियों से युक्त राजागग जिनकी सेवा में सदा तत्पर रहते थे वह श्रीपाल उस समय देवों के अधिपति इन्द्र के समान प्रतीत होता था ।।१२।।
विज्ञप्तो वनपालेन नानापुष्पफलोत्करैः । राजन् नृपवने रम्ये श्रुतसागर नाम भाक् ॥३॥ महा मुनिस्समायातो ज्ञातसर्वागमः प्रभो । सर्वजीवदयासिन्धुः स्वावधिज्ञान लोचनः ॥४॥
श्रन्वयार्थ -- उसी समय ( वनपालेन ) वन रक्षक के द्वारा ( नानापुष्पफलोत्करैः ) अनेक प्रकार के पुष्प फलों से अर्थात् नाना प्रकार के फल पुष्प अर्पित कर (विज्ञप्तो ) विज्ञप्ति की गई, निवेदन किया गया है ( राजन् ! ) हे राजन् ! ( प्रभो ! ) हे प्रभु ( रम्ये नृपवने) रभरीय राजवन में (ज्ञात सर्वागमः ) सम्पूर्ण श्रागम को जानने वाले ( स्वावधिज्ञानलोचनः ) अवधिज्ञान है रुव नेत्र जिनका ऐसे अवधिज्ञानो ( सर्वजीवदयासिन्धुः ) सम्पूर्ण जीवों पर दया करने वाले दया के सागर ( श्रुतसागरनाम भाक् ) श्रुत सागर नामक ( महामुनिः समायातो) महामुनि आये हैं ।
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