Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ]
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एवं जिनेन्द्रकथितं सुदयाप्रधानम् । धर्म जगत्त्रयहितं परमादरेण । श्रीपालनाम नपति सुखदं प्रकुर्थन् ।
राज्यं चकार सुचिरं स्वसमीहित सः॥४॥ अन्ययार्थ--(एवं) इस प्रकार (सः) उस (श्रीपाल नाम नृपति) श्रीपाल नामक राजा ने (सुदयाप्रधानम् ) सम्यक् दया है प्रमुम्ब जिसमें ऐसे (जगत्त्रयहित) तीन लोक का हित करने वाले (जिनेन्द्रकथितं) जिनेन्द्र प्रभु कथित (सुखदं धर्म प्रकुर्वन् ) सुखद धर्म को करते हुए (सुचिरं) चिर काल तक (स्वसमीहितं) अपने अभीष्ट (राज्य) राज्य को (चकार) किया।
भावार्थ-जिनधर्म में दया भाद की प्रधानता है। सम्यक् दया है आधार जिसका ऐसे तोन लोक का हित करने वाले सुखकर जिनधर्म का आचरण करते हुए श्रीपाल महाराज ने चिरकाल अपने अभीष्ट राज्य को किया अर्थात् सदा पपूर्वक मार लोति के साथ राज्यशासन करते रहे ॥१४॥
॥इति श्रीसिद्धचक्र पूजातिशय प्राप्ते श्रीपाल महाराज चरित्रे श्रीपाल महाराज चम्पापुरी राज्य प्राप्ति व्यावर्णनो नाम सप्तमः परिच्छेदः ।।शुभम् प्रस्तु।।
इस प्रकार श्री सिद्धचत्र पूजा के अतिशयकारी फल को प्राप्त करने वाले श्रीपाल महाराज के चरित्र में श्रीपालमहाराज के द्वारा चम्पापुरी राज्य की प्राप्ति का वर्णन करने बाला सप्तम परिच्छेद समाप्त हमा।
|| शुभम् मस्तु ।