Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद
[४२१ भावार्थ-तदनन्तर परमानन्द से भरे हुए उन सभी राजाओं ने उत्तम जल, इक्षुरस, घृत, दुग्ध पोर सर्वोषधि से अर्थात् पञ्चामृत मे जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक कर संकडौ महान उत्सवों के साथ श्रीपाल महाराज को ऊँचे सुवर्णमय सिंहासन पर विराजमान किया और श्रेष्ठउत्तम जल आदि से भरे हुए सुवर्णमय उत्तम मनोज कलशों से मङ्गलमय बादित्रध्वनियों के साथ अत्यन्त प्रीति पूर्वक उनका राज्याभिषेक किया। अतिशय पुण्यशाली उन श्रीपाल महाराज की भक्ति पूर्वक पूजा भी की, ठीक ही है अपने पूर्व पुण्य से इस पृथ्वी पर उसके लिये कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं होती है । पुण्य से धन, यश, कीति, राज्यादि विभूतियों सभी महज प्राप्त हो जाती हैं ।।७७ से ८०।।
ततो भव्या जिनेन्द्रोक्त दानपूजा तपोव्रतम् । नित्यं पुण्यं प्रकुर्वन्तु सारशर्म विधायकम् ॥८१॥
अन्वयार्थ--(ततो) इसलिये (भव्या:) भव्य जन (सारशर्म विधायकम् ) सारभूत स्वर्ग मोक्षादि विभूतियों को प्रदान करने वाले (जिनेन्द्रोक्त) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित (दानपूजा-तपोव्रतम् पुण्यम्) दाम. पूजा, तप, व्रत प्रादि पुण्य कार्य । नित्यं प्रकुर्वन्तु) नित्य करते रहें।
भावार्थ--अतः मोक्षादि सुख के अभिलाषी भव्यपुरुषों को, सारभूत स्वर्ग मोक्षादि सुख को प्रदान करने वाले जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कहे गये दान, पूजा, तप, ब्रत आदि पुग्य कार्य निरन्तर करते रहना चाहिए ।।१।।
पुण्येन दूरतरवस्तु समागमोऽस्ति । पुण्येन बिना लदपि हस्ततलात् प्रयाति । तस्मात् सुनिर्मल धियः ! कुरुत प्रमोदात ।
पुण्यं जिनेन्द्र कथितं शिवशर्मबीजम् ।।२।। अन्वयार्था-(पुण्यन) पुण्य से (दुरतरवस्तु) प्रतिदूरवर्ती दुष्कर पदार्थ (समागमोऽस्ति) मुलभ हो जाता है (पुण्यन बिना) पुण्य के बिना (तदपि ) बहू प्राप्त वस्तु भी (हस्तनलात्) हस्ततल से (प्रयाति) चली जाती है (तस्मात्) इमलिये (मुनिर्मल धियः) हे पवित्र बुद्धि बाले सुधोजन ! (शिवशर्म योजम्) शिव नुग्व का बीजभूत (जिनेन्द्रकथितं पुण्यं ) जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित पुण्य कार्य (प्रमोदात) हर्ष से प्रानन्द से (कुस्त) कार।
__ भावार्थ- "पुण्य' इस जीव का सब प्रकार से हित करने वाला है। पुण्य से अतिदूरवर्ती दुष्कर पदार्थ भी अनायास प्राप्त हो जाता है और पुण्य के बिना वह प्राप्त होने के बाद भी हस्ततल से निकल जाता है अर्थात् प्रयत्न पूर्वक सुरक्षित करने पर भी नहीं ठहरता, बिलीन हो जाता है । इसलिये प्राचार्य कहते हैं कि उत्तम बुद्धि के धारी सुधीजन मोक्षरूपी सुख सम्पत्ति को देने वाले जिनेन्द्र प्रभु कथित सातिशय पुण्य का संपादन निरम करते रहें । हर्ष