Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद ]
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जनो ! ( परादोक्षा) श्रेष्ठ दीक्षा (गृह्यते) ग्रहण की जाती है (तत्) वह मोह ( सताम् ) सज्जनों का ( वरं श्रनिष्ट) महा अनर्थ करने वाला है।
भावार्थ उपर्युक्त घटनाओं को पढ़ने से यह विदित होता है कि सज्जनों पर आई हुई विपत्ति भी उसके लिए मुक्ति रूपी लक्ष्मी को देने वाली हो जाती है जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में बताया भी है कि श्रीपाल से पराजित हुआ वीरदमन राजा वैराग्य को प्राप्त हो गया और ज्ञानसागर मुनिराज के पास जाकर जिन दीक्षा ले ली। वे वीरदमन राजा विचार करने लगे कि इस जीव का सबसे अधिक अनिष्ट करने वाला मोह है अतः जिस किसी उपाय से मोह तथा राग द्व ेष क्रोधादि शत्रुओं को नष्ट करने की भावना रखने वाले को जिन दीक्षा- जनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करनी परमावश्यक है। मोहशत्रु को जीतने में निर्ग्रन्थ मुनि ही समर्थ होते हैं । तदनुसार दीक्षा लेकर स्वयं भी मोह शत्रु को जीतने के लिये कठोर तपश्चरण करने लगे ॥७०७१ ।
तदा श्रीपालराजोऽपि स्वपुण्यपरिपाकतः । महोत्सवशतैश्चापि पुरीं चम्पां महद्धिकाम् ॥७२॥ रत्नादि तोरणोपेतां सम्पदां सार संभृताम् । पन्चवा स्त्यतां वा तदागमे ॥७३॥ राजभिर्बहुभिस्सा प्रिया वृन्वैः परिच्छदः । ar चामरसवो देवेन्द्रो वामरैर्धृतः ।। ७४ ।।
सर्वसज्जन संध्यो नदद्वादित्र सुध्यति । चारण स्तुति पाठः स्तूयमानो विवेश सः ।।७५।।
अन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( स्वपुण्यपरिपाकतः ) अपने पुण्य के उदय से ( श्रीपाल - (राजोऽपि ) श्रीपाल राजा ने भी ( महोत्सवशतैः) सैकड़ों प्रकार के महोत्सवों के साथ (रत्नादितोरणोपेता) रत्नम तोरण द्वारों से सहित ( संपदांसार संभृतां ) सारभूत विभूतियों से भरी हुई (महािम्) अत्यन्त प्रतिशययुक्त (चम्पां) चम्पा नगरों में (पञ्चवध्वजप्रातः) पञ्चवर्ण की जाओ से सहित ( भूत्यतां ) सेवा में तत्पर ( प्रियावृन्दैः परिच्छदैः सार्द्धम ) प्रिया समूह और सम्पूर्ण परिकरों से युक्त ( बहुभिः राजभि: निवेश ) बहुत से राजाओं के साथ नगरी में प्रवेश किया (वा) जो ऐसा प्रतीत होता था मानो (नदत् वादित्रमुध्वनि) बजते हुए बाजों की मधुर ध्वनि तथा (चारणस्तुतिपाठीच) चारण भाटों के स्तुति पाठों से युक्त वह श्रीपाल (छत्रचामरसन्दोहैः श्रमरैः धृतः ) छत्र चमरों को धारण किये हुए देवों से सहित साक्षात् (देवन्द्रों) देवेन्द्र ही है ।
भावार्थ तदनन्तर श्रेष्ठ सहज विजय को प्राप्त हुआ वह श्रीपाल अपने पुण्योदय विशेष का सुखद फल भोगता हुआ, विशाल परिकरों के साथ उस वैभवशाली अतिशयकारी सुसम्पन्न मनोहर अपनी चम्पानगरों में प्रवेश करता है । श्रीपाल के स्वागत के लिये अपनी