Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद]
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कहता है कि हे प्रभो चन्दन घिसने पर भी अपनी सुगन्धि को नहीं छोड़ता है उसी प्रकार प्राप जमे श्रेष्ठ सुधी जन भी सर्वत्र सर्वप्रकार से क्षमा भाव रखते हैं ऐसो हमारो हड़ आस्था है आपके प्रति हमारा विश्वास है । श्रीपाल से पराजित हुए राजा वीरदमन उस शीतल अमृत के समान सुखकर श्रीपाल के वचनों को सुनकर शोक रहित हो गये और श्रीपाल के प्रति कहने लगे कि हे प्रज्ञावान् श्रेष्ठ उत्तम बुद्धि के धारी थीपाल ! वस्तुतः तुम लोक में सर्वोत्तम सरगुरुष हो फिर मुझे. तुम्हारे प्रति शोक कैसे हो सकता है ।।६१ से ६३।।
प्रदीपे दीप्यमाने च नैव तिष्ठति वा तमः । सन्तुष्टोऽहं सुधीः पुत्र विनयेन तव घ्र वम् ॥६४॥ अहं दीक्षा ग्रहिष्यामि शुद्धा जैनेश्वरों शुभाम् ।।
त्व मे सत्यं सहायत्त्व संजातोसि विचक्षणः ॥६५॥ अन्वयार्थ---(एव) यह निश्चित बात है कि (प्रदीपे दीप्यमाने) दीपक के जलने पर (तमः म तिष्ठति) अन्धकार नहीं ठहरता है (व वम् ) निश्चय से (सुधीः पुत्र) हे विवेकशील पुत्र घोपाल ! (तव विनयेन) तुम्हारे विनय भाव से (अहं सन्तुष्टो) मैं सन्तुष्ट हूँ। (अहं) मैं (शुद्धां शुभाम् जैनेश्वरों दीक्षां) निर्दोष हितकारी जनेश्वरो दोक्षा को (ग्रहिष्यामि) ग्रहण कामगा और इसके प्रति] (विचक्षण:) हे प्रज्ञावान ! (सत्यं) वस्तुतः (त्वं मे सहायत्त्वं सानोमि तुम मेरे सहायक हो ।
भावार्थ-वीरदमन राजा श्रोपाल को कहने लगे कि जैसे दीपक के जलने पर अन्धकार नहीं करता है उसी प्रकार तुम्हारे सारगर्भित श्रेष्ट विनम्र वचन और श्रेष्ठ व्यवहार ने हमारे अन्दर ज्ञान वैराग्य की ज्योति जागत करदी है अब वहाँ शोकपी अन्धकार को ठहरने के लिये अवकाश नहीं रहा 1 हे पुत्र ! मैं तुम्हारे बिनय से बहुत साता ट हैं । तुम हमारे उपकारी हो, तुम इस पृथ्वी पर सदा जयवन्त रहो, मैं तो अब निदोष हितकारी जनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूगा उसमें भी तुम्हारा ही सहायत्व है ।।६५।।
एतद्राज्यं महापापकरं श्वभ्रनिबन्धनम् । नित्यमस्तु तना होष्ट मनं जातु मे न च ॥६६॥ ग्रद्य धन्यो भवानासीद्ध तुर्मे तपसि स्फुटम् ।
तस्मारवं परमो बन्धुः क्षमा सर्वत्र वास्तु मे ॥६७।।
अन्वयार्थ - (एतद्रराज्यं) यह राज्य (महापापकर) भयंकर पाप को उत्पन्न करने बाला (च) और नियनिश्चय मे (श्वननिवन्धनं) पाप का कारण है (धर्मधनं धर्मघातक रोभा राज्य (मे जात) मुमं कभी (इष्ट न) इष्ट नहीं हो सकता (अद्य व अस्त अब तृम्हाग राज्य यहां म्यापित हव । (त्यं) तुम (मे तपसि) हमारी तपस्या में (म्पुटम हेतु: आसीत् ) प्रत्यक्ष हेतु हुए निरमात्) अत: (भवान्) आप (अद्य) आज (धन्यो) धन्य हो ।