Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद इत्यादिक शुभं वाक्यं श्रीपालस्य सुखप्रदम् । स वीरदमनो राजा श्रुत्वा वैराग्य भावनात ॥६२॥ तं प्रोवाच सुधीस्सोपि भो श्रीपाल विचक्षणः ।
धरजनो सोश शोफेम मम त्वयि ॥६३॥ अन्वयार्थ– (यतः) क्यों (सन्तः) सत्पुरूष (सर्वत्र सर्बथा) सब जगह सर्व प्रकार से (क्षमा प्रकुर्वन्ति) क्षमा भाव रखते हैं (प्रभो !) हे प्रभु (कि) क्या (घृष्टमानः) घिसा जाता हुआ (चन्दनो) चन्दन (सौगन्ध्य) सुगन्धि को (त्यजति ?) छोड़ देता है ? अर्थात नहीं छोड़ता है । (श्रीपालस्य) श्रीपाल के (इत्यादिक) ऐसे (सुखप्रदं शुभं वाक्यं) सुखकर शुभश्रेष्ठ वचनों को (श्रुत्वा) सुनकर (सोऽपि स राजा वीरदमनो) वह राजा बोरदमन भी (तं प्रोवाच) उस श्रोपाल को बोला (भो विचक्षणः सुधी: श्रीपाल) हे श्रेष्ठ बुद्धि के धारी विवेकशील श्रीपाल (लोके त्वं सज्जनः) लोक में तुम सज्जन पुरुष हो यह बात (सत्यं ) सही है अतः (मम) मेरा (त्वयि) तुम्हारे प्रति (किं शोकेन) शोक क्यों होगा ? अर्थात शोक रूप परिणाम नहीं हो सकता है ।
भावार्य-श्रीपाल के श्रेष्ठ विनय युक्त वचन और अनुपम बल शक्ति प्रभुत्व का सद्भाव, उसको लोकोत्तर महानता के द्योतक हैं। चाचा को हमारे निमित्त से कष्ट दो ऐसा वह श्रीपाल नहीं चाहता था अतः उनके मनोमालिन्य को दूर करने के लिये वह पुन: