Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद
तदा ते साक्षिणस्सर्वे श्रीपालस्य च सैन्यकाः । जप कोलाहाल धनुः परमानन्द निमंराः ॥५३।। वीरादिदमनो राजा चर्को म्लानं मुखाम्बुजम् ।
रात्री हि हिमपासेन यथा पद्माकरो भुवि ॥५४॥ अन्वयार्य--(तदा) तब (परमानन्द निर्भराः) परम आनन्द से भरे हुए (धोपालस्य साक्षिण:) श्रीपाल के पक्ष वाले (ते सैन्यकाः) उन सैनिकों ने (जय कोलाहलं) जय रूप कोलाहल (चक:) किया और (वीरादिदमनो) वीरदमन (राजा) राजा ने (मुखाम्बुजम) मुख कमल को (म्लानं चके) उस प्रकार म्लान-उदास कर लिया (यथा) जैसे (भुवि) पृथ्वी पर (पाकर) कमल (रात्री हिमपातेन म्लान) रात्रि में होने वाले हिमपात से म्लान हो जाता है, कुम्हला जाता है।
भावार्थ---श्रीपाल की विजय से परमानन्द को प्रात हुए उस पक्ष के सैन्यदन्न ने, जय रूप कोलाहल से, आकाशमण्डल को मुजित कर दिया और वीरदमन राजा का मुख उस प्रकार म्लान हो गया जैसे रात्रि में होने वाले हिमपात से कमल म्लान हो जाता है । राजा बीरदमन का मुख कमल जो सबके लिये सुखकारी था, वह आज युद्ध में पराजय के कारण अति उदास हो गया था । वह पराजय, रात्रि के गहन अन्धकार और हिमपात के समान वीरदमन के लिये अतिकष्टदायक प्रतीत हो रही थी ।।५३ ५४।।
एकस्यापि महानन्दो द्वितीयस्य महाऽशुभः । संसारचेष्टितञ्चेति सुधियां बोधकारणम् ॥५५॥ तदा श्रीपाल भूपालो दयालुस्सर्वदा सुधीः । तं म्लानववनं वोक्ष्य विमुच्य जवतो बुधः ॥५६।। पितृव्यं भावतो नत्त्या तं जगौ गुणमन्दिरम् ।
भोस्सुधीस्त्वं सदा पूज्यो, पित्रासम मे दौजितः ॥५७।। अन्वयार्थ--वह युद्ध (एकस्य महानन्दोऽपि) एक के लिये महानन्दकारी होकर भी (द्वितीयस्यमहा-अशुभः) दूसरे के लिये महा अशुभकारी था। (संसारचेष्टितं च इति) संसार की यह चेष्टा (सुधियां) विद्वानों के (बोधकारणम्) बोधि रूप यथार्थ ज्ञान को उत्पन्न करने में कारण है। (तदा) तब (सर्वदा दयालु:) सर्वदा सभी जीवों पर दया करने वाले (मुधोः) श्रेष्ठ बुद्धि का धारी (बुधः भूपालो श्रीपाल) श्रेष्ठ राजा श्रीपाल ने (म्लानवदनं) म्लानमुख वाले (तं वीक्ष्य) उस वीरदमन को देख कर (जवतो) शीघ्र (विमुच्य) उसको बन्धन से मुक्त कर (गुणमन्दिरम्) गुणों के मन्दिर (तं पितृव्यं) उस चाचा को (भावतो नत्वा) भाव से नमस्कार कर (जंगी) कहा (भोः सुधी:) हे श्रेष्ठ बुद्धि के वारी ! (पित्रा सम दौजितः) पिता के समान अजेय (त्वं) तुम (मे सदा पूज्यो) मेरे लिये सदा पूज्य हो ।