Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
एवं पुण्याधिक श्रीमान् श्रीपालः स्वगुणोज्वलः । पूरयित्वा समस्यास्तास्सर्व विद्याविशारदः ॥६१।। तासां मनोऽम्बुजान्युचर्भास्करो वा जद्धितः ।
सुधीविकासयामास स्थ वाक्यकिरणोत्करैः ।।२।। अन्वयार्थ (एब) इस प्रकार (सर्व विद्याविशारदः) सम्पूर्ण विद्याओं में पारङ्गत (स्वगुणोज्वल:) अपने उत्तम गुणों से निर्मल, (पुण्याधिक श्रीमान्) तीन पुण्योदय से अपार लक्ष्मी का अधिपति उम् (श्रीपालः) श्रीपाल ने (ताः) उन (ममस्या) समास्याओं-पहेलियों को (पूरयित्वा) पूर्ण करके, (वा) जिस प्रकार (भास्कर:) सूर्य (अम्बुजानि) कमलों को (बिकासयति) विकसित करता है । उसी प्रकार (जगद्धितः) संसार का हित करने वाले (सुधीः) सम्यग्यानी भोपाल ने (स्व) अपनो (वाक्यकिरणोत्करः) वचनरूरो किरणों के समूह द्वारा (तासाम्) उन कन्याओं के (मनोऽम्बुजानि) मन रूपी कमनों को (उच्चैः) पूर्ण रूप से (विकासयामास) विकसित किया-प्रफुल्ल कर दिया।
समस्या पूरणात्तत्र संतुष्टस्स महीपतिः ।
ख्यातो विजयसेनाख्यस्तस्मै सत्पुण्यशालिने ॥६३।। अन्वयार्थ (तत्र) वहाँ (समस्या) समस्या (पूर्णात्) पूरी करने से (स्यातः) प्रसिद्ध (विजयमेनाख्यः) विजयसेन (महोपतिः) भूपति (सन्तुष्ट:) सन्तुष्ट हुपा (मः) उसने (सत्) श्रेष्ठ (पुण्यशालिने) पुण्यशाली (तस्मै ) उस श्रीपाल के लिए।
कन्या शतान्वितास्सर्वा षोडशविराजिताः । वस्त्राभरणसन्दोहैर्यथा कल्पतरो लताः ॥६४॥ विवाह विधिनाप्रोच्चमहोत्सव शतरपि । श्रीपालाय बदौ हेमनानारत्नादिकं पुनः ॥६५॥ गजाश्वरथपादाति छत्र चामर स ध्वजान् ।
दवाति स्म प्रमोदेन सत्यं पुण्यवतां श्रियः ॥६६॥ अन्वयार्थ--(श्रीपालाय) श्रीपाल के लिए (विवाहविधिना) पाणिग्रहण विधि पूर्वक (शतः) सैकडों (उच्चैः) महान (महोत्सवः) उत्सवों द्वारा (वस्त्राभरणसन्दोहै:) वस्त्र और अलङ्कारों के समूह से युक्त (यथा) जैसे कल्पनरोलता) कल्पवृक्ष की लता ही (प्रविराजिताः) सुशोभित हो ऐसी (षोडश) सोलह (शतान्त्रिता:) सौ कन्या (सर्वा:) सभी कन्याः) कन्याएँ (ददौ) प्रदान की (पुनः) पुनः, फिर (नाना) अनेक (हेम) सुवर्ग (रत्नादिकम् ) नव रत्नादि (गजाः) हाथो (अश्वाः, घोड़े (रथपादाति) रथ, पंदल सेना