Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद }
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उत्सव के साथ सैकड़ों प्रकार के बाजों को मधुर संगीत ध्वनि और नृत्यादि से सच के चित्त को प्रमुदित करते हुए अपनी नगरी में प्रवेश करने के लिये, श्रीपाल को बड़ी भक्ति से ले गया तथा रत्नमयी तोरणों से शोभित हैं द्वार जिसके ऐसी अपनी नगरी में महान उत्सव के साथ प्रवेश कराया ।।१७२, १७३॥
तत्र राजादयस्सर्वे राजवर्गाश्च सज्जनाः । सिंहासनं समारोप्य सुताकान्तं प्रियान्वितम् ॥१७४।। नानावस्त्र - सुथरः सद्रत्नैः परमादरात् । पूजयतिसरया कोटिभ शिरोमणिम् ॥ १७५॥
सहित कान्त श्रीपाल को ( सिंहासनं समारोप्य) अनेक प्रकार के वस्त्र और सुवर्णादि से तथा शिरोमणिम् ) कोटिभट शिरोमणि श्रीपाल की प्रीति पूर्वक ( पूजयन्तिस्म) पूजा की।
श्रन्वयार्थ -- ( तत्र ) वहाँ नगरी में ( सर्वे राजादय.) सभी राजाओं ने ( राजवर्गाः सज्जनाः च) राज परिवार के श्रेष्ठ जनों ने ( सुता प्रियान्वितं कान्तं ) राज पुत्री अर्थात् प्रिया सिंहासन पर बैठाकर ( नानावस्त्र सुवर्णाद्य : ) (सद्रत्नैः) श्रेष्ठ उत्तम रत्नों से ( कोटिभट( परमादरात् ) परम आदर से ( सत्प्रीत्या ) अति
भावार्थ- वहाँ नगरी में पहुँचने पर वहां रहने वाले सभी अन्य राजाओं ने तथा राज परिवार के सभी सज्जनों ने मिलकर श्रीपाल महाराज का बड़े उत्सव के साथ स्वागत किया, भक्ति की, प्रिया मैनासुन्दरी सहित श्रीपाल महाराज को सुन्दर सिंहासन पर बैठा कर नाना प्रकार से उनकी स्तुति की, उत्तमोत्तम वस्त्राभरण सुवर्ण रत्नादि भेट कर परम आदर और प्रीति के साथ उनकी पूजा की अर्थात् सत्कार वा सम्मान किया ।। १७४, १७५ ।।
युक्तं पुण्यविपाकेन सर्वत्र सुलभाः श्रियः ।
तस्मात् पुण्यं प्रकर्त्तव्यं सदा भव्यंजिनोदितम् ॥ १७६ ॥
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श्रन्वयार्थ -- ( युक्तं ) ठीक ही है ( पुण्यविपाकेन ) पुण्य के फलस्वरूप अर्थात् पुण्य प्रभाव से ( श्रियः ) लक्ष्मी अर्थात् विभूतियाँ ( सर्वत्र सुलभा : ) सर्वत्र सरलता से प्राप्त हो जाती हैं ( तस्मात् ) इसलिये ( भव्येः ) भव्यपुरुषों को (सदा) निरन्तर (जिनोदितम् ) जिनेन्द्रप्रभु के द्वारा कहे गये (पुण्यं) सातिशय पुष्य को ( प्रकर्तव्यम्) करना चाहिए ।
एवं तत्र प्रभु सोऽपि श्रीपाल बहुभूमिपैः । सेव्यमानो महासैन्यसंयुतोगुण मण्डितः ।। १७७ || साथिकाष्टसहस्रोरुवनिता वृन्दसंयुतः । भजन्भोगान् सुखं तस्थौ दानैः कल्पतरूपमाः ।। १७८ ।।