Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद]
[४०७ संहलादि देश (स्वत् समाः सर्वे बहवोभूपालाः) तुम्हारे समान सभी अर्थात् बहुत राजागण (पालितारिवलमंडलम्) सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल का रक्षण वा पालन करने वाले (श्रीपालनामभूपालं) श्रीपाल नामक राजा को (सेवन्ते) सेवा करते हैं ।
मानार्थ-वन दत, महाराज श्रीपाल की गाक्ति की महानता को व्यक्त करते हुए कहने लगा कि अङ्ग देश, बङ्ग देश, कलिङ्ग, गुजरात और माल वादि देश तथा कौकुण, तेलमू और सैहलादि देशवर्ती सभी राजा और तुम्हारे समान बहुत राजागण सदा उस श्रीपाल महाराज की सेवा में तत्पर रहते हैं उस कोटिभट श्रीपाल का बल अतुल है अत: तुम मिथ्या अहंकार मत करो। तुम्हारा यह झूठा अहङ्कार मान भङ्ग का कारण है प्रतः अहवार को छोड़कर श्रीपाल महाराज के सेवकत्व को स्वीकार करो ।२६ २७।
ततः कोपं परित्यज्य भो प्रभो सुभटोत्तमम् ।
कोटिभटं स्वरक्षार्थ भज त्वं स्वामिनं मम ॥२८॥ अन्वयार्थ--(तत:) इसलिये (भो प्रभो ! ) हे राजन् (कोपं परित्यज्य) क्रोध को छोड़ कर (स्वरक्षार्थ) अपनी रक्षा के लिये (त्वम् ) तुम (मम स्वामिन) मेरे स्वामी (कोटिभटं सुभटोत्तम) कोटिभट वीरोत्तम श्रीपाल को (भज) सेबो अर्थात श्रीपाल की सेवा में सत्पर हो जाओ।
भावार्थ- दूत ने पुनः राजा वोरदमन को कहा कि तुम अपनी रक्षा के लिये क्रोध को छोड़कर वीरोत्तम कोटिभट श्रीपाल का सेवकत्व स्वीकार करलो ।।२८]
वीरादिदमनो राजा तदाकोपेन संजगौ । अरे दूत त्वरं याहि यतो बद्धयो स नैव च ॥२६॥ अद्यय दर्शयिष्यामि सामर्थ्य स्वयं रणाङ्गणे ।
एवं विसज्यं तं दूतं स्वयं च रणतूर्यकम् ॥३०॥ अन्वयार्थ--(तदा) तब .(कोपेन) क्रोध से (वीरादिदमनोराजा) वीरदमन राजा ने (संजगी) कहा (अरे दूत ! ) हे दूत ! (त्वरं याहि) शीन जाओ (यतो) क्योंकि (बद्ध्यो स नंबच) बह अर्थात दुत निश्चय से बध्य नहीं होता है। (अयब) प्राज ही (रणाङ्गणे) यद्धस्थल में स्विं सामर्थ्य) अपने सामर्थ्य को दर्शयिष्यामि दिखा देगा एवं इस प्रकार (तं इतं) उस दूत को (विसर्य) भेजकर (च) और (स्वयं रतूर्ययम ) स्वयं रण भेरी बजवादी।
दापयित्वा समारूह्य मत्तमातङ्ग मुत्तमम् । चतुरङ्गबलोपेतश्चामरादि विभूतिभिः ॥३१॥