Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल परित्र सप्तम परिच्छेद]
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ने अपने पति को कहा कि हे प्रभो ! युद्ध में वीर शत्रुओं को जीतकर आप अपनी धवल प्रभा से विश्व को व्याप्त करने वाले चन्द्रमा के समान कीर्ति रूपी कान्ति से इस भूतल को व्याप्त करें। इस प्रकार की मङ्गलकामना के साथ उन वीराङ्गनानों ने अपने अपने स्वामी को युद्ध स्थल के लिये विदा किया ।।३४३५॥
भयभय जननी कानित्सती प्राह सुतं प्रति । अरे पुत्र रणेचापि स्मर्त्तव्याः निज मानसे ॥३६॥ सारपञ्चनमस्कारास्सर्व सिद्धि विधायकाः ।
येन से कार्य संसिद्धिस्सद्यशोभिर्जगत्त्रये ॥३७॥
अन्वयार्य-(भटस्य जननी) बोर सुभट की माता ऐसी (काचित् सती) किसी शीलवती ने (सुतं प्रति प्राह) पुत्र के प्रति काहा (अरे पुत्र ! )हे पुत्र ! (रणे) युद्ध में (अपि) भी (निजमानसे) अपने मन में (सर्व सिद्धि विधायकाः) सर्व सिद्धियों को प्रदान करने वाले (सारपञ्चनमस्काराः) सारभूत पञ्च नमस्कार मंत्र का (स्मर्तव्या:) स्मरण करो (येन) जिससे (जगत्त्रये) तीन लोक में (सद्यशोभिः) उत्तम-निर्मल यश के साथ (ते कार्य) तुम्हारे कार्य की (संसिद्धिः) सम्यक् प्रकार सिद्धि हो सके ।
भावार्थ शीलवती श्रेष्ठ विसी वीर सुभट की माता ने अपने पुत्र के प्रति कहा हे पुत्र ! युद्ध स्थल में भी तुम समस्त कार्यों को सम्यक् सिद्धि कराने वाले उस पञ्चनमस्कार मंत्र का सदा स्मरण रखना । उस पञ्चनमस्कार मन्त्र के प्रभाव से तुम, लोक में निर्मल यश से विश्व को व्याप्त करते हुए श्रेष्ठ विजय को प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हो ।। ३६ ३७।।
भवेदुच्चः प्रजल्येति दधिचन्दनमक्षतान् । वधौ पुत्र-शिरोदेशे ललाटे च शुचान्विता ॥३॥ एवं शिक्षाशतोपेतै टैस्सार्थ विनिर्ययो ।
स वीर्यदमनो राजा सञ्जतु भ्रातृजन्तुजम् ।।३६॥ अन्वयार्थ- (भवेद् उच्च:) श्रेष्ठ विजय की प्राप्ति होवे (इति) ऐसा (प्रजलप्य) कह कर (शुचान्विता) मङ्गलमय पवित्र भावों से सहित माता ने (पुत्रशिरोदेशे) पुत्र के मस्तक प्रदेश में (ललाटे) ललाट पर (दधिचन्दनम अक्षतान्) दही, चन्दन अक्षतों को (दधौ क्षेपण किया (एवं) इस प्रकार (शिक्षाशत्तोपेतः) सैकड़ों शिक्षावचनों से संस्कृत किये गये (भटे: सार्थ) भटों के साथ (भ्रातृजन्तुजम् ) भतीजे को (सजेतुम ) जीतने के लिये (स राजा वीयंदमनो) वह राजा वीर्यदमन (विनियो) नगरी से बाहर निकला।
भावार्थ-निरन्तर पुत्र के विजय की कामना करने वाली सुभटों की मातायें, मङ्गलमय पवित्र भावों से सहित पुत्र को कहने लगी कि तुम शीघ्र श्रेष्ठ विजयलक्ष्मी को
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