Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
अन्वयार्य-(एवं) इस प्रकार (तत्र) वहाँ उज्जयनी नगरी में (बहुभूमिपैः) बहुत राजाओं से (सेव्यमानो) सेवित (महासन्यसंयुतो) विशाल सेना से युक्त (साधिकाष्टसहस्र ) कुछ अधिक पाठ हजार (उस्वनितावृन्दसंयुतः) श्रेष्ठ अर्थात् रूप गुण सम्पन्न स्त्रियों से सहित (भोगान् भुजन) भोगों को भोगता हुआ (दान:) दान क्रियानों के द्वारा (कल्पतरूपमा) कल्प वृक्ष के समान उपमा को धारण करने वाला (गुराणमण्डितः) गुणों से मंडित शोभित (सो प्रभुः श्रीपालोऽपि) वह राजा श्रीपाल भी (सुखं) सुखपूर्वक (तस्थी) रहने लगा।
भावार्थ-इस प्रकार बहुत से राजाओं से सेवित, विशाल सेना सहित, कुछ अधिक आठ हजार श्रेष्ठ रूप गुण सम्पन्न स्त्रियों के साथ इच्छित भोगों को भोगता हुआ और उत्तमोतम वस्तुओं का निरन्तर दान करने से कल्पवृक्षं को उपमा को धारण करने वाला, श्रेष्ठ मणों से सम्पन्न वह राजा श्रोपाल अनुपम शोभा को प्राप्त हुआ। निरन्तर जिनभक्ति में चित्त को लीन रखने वाला महापुण्यशाली वह श्रीपाल इस प्रकार वहाँ सुख पूर्वक रहने लगा। १७६, १७॥
श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणां कुर्वन पूजां जगद्धिताम् । सिद्धचकं समाचित्ते चिन्तयन् परयामुदा ॥१७॥ इत्थं पुण्यविपाकतो जिनपतेद्धर्म जगत्द्योतकम् । कुर्वन् सर्वपरिच्छदैः परिवृतः श्रीपाल नामा नृपः नानाभोगविलासरजित जगत्सर्वज्ञशास्त्रेमतिः ।
नित्यं सारपरोपकार चतुरस्तत्रस्थितस्सौख्यतः ।।१०।।
अन्वयार्थ -(श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणाँ) चन्द्रमा से भी अधिक सुखकर शोतल ऐने यो जिनेन्द्र प्रभु को (जगद्धिताम पूजां) जगत् हितकारी पूजा को करते हुए (समाचित्ते) निर्मल चित्तभूमि में (सिद्ध चक्र चिन्तयन) सिद्धचाराधना का चिन्तन करते हुए (परयामुदा) परमानन्द का अनुभव करने वाले (जगत्द्योतकम् ) जगत् का द्योतन प्रर्यात उद्धार करने वाले (जनपतेद्धी) जिनधर्म को (कुर्वन्) पालन करता हुमा (पुण्यचिपाकतो) पुण्योदय से प्राप्त (नानाभोगविलासरजित) नाना प्रकार को भोग विलास की सामग्रियों से शोभित तथा (जगत्सर्वज्ञ) लोक के समस्त पदार्थों को जानने वाले ऐसे जिनप्रणीत (शास्त्र) शास्त्र में (मतिः) संलग्न है बुद्धि जिनकी तथा (सारपरोपकार चतुरः) सारभूत श्रेष्ठ परोपकार के कार्यों में निपुण या कुशल हैं जो ऐसे (श्रीपालनामानृपः) श्रीपाल नामक राजा (सर्वपरिच्छदः परिवृतः) सर्वपरिकरों से घिरे हुए (इत्थं) इस प्रकार (सौख्यतः) सुख पूर्वक (तस्थितः) वहाँ रहने लगे।
भावार्थ - जो चन्द्रमा से भी अधिक कान्ति और शीतलता को धारण करने वाले ऐसे श्री जिनेन्द्र प्रभु की पूजा सर्व जगत का हित करने वाली है उस परम हितकारी जिन पूजा को करते हए तथा अपनी निर्मल चित्त भूमि में निरन्तर सिद्धचक्र पाराधना का चिन्तन करते हुए वे श्रोपाल महाराज सदा सातिशय पुण्य का अर्जन करते रहते थे तथा पुण्योदय से प्राप्त