Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ]
[ ३७१
वैभव गौरव और सुख का साधन दिखता था वही अब विषधर समान प्रतिभाषित होने लगा। संसार, शरीर और भोग तृणवत् त्याग दिये । राज्यभार अपने लघुभ्राता वैरिदमन को समर्पित कर दिया, स्वयं यशोधर मुनिराज के चरणों में जाकर परम विशुद्धि से मुक्तिदाता दिगम्बरजिनदीक्षा धारण कर ली । उत्तम सकल संयम धारण कर कर्मोच्छेदन में संलग्न हो गये। पराभव ने क्षणभंगुर संसार का यथार्थ चित्र खोल दिया । यह शरीर क्षणभंगुर है । शरीर से आत्मसाधना नहीं की तो वह शक्ति पशुबल है, संसार वर्द्धक है, त्याज्य ही है । उसी शक्ति को त्याग-वैराग्य के लिए अपए कर दी तो चिर सुख और शान्ति का हेतु हो जाती है । अस्थिर शक्ति से स्थिर शक्ति-अनन्तबल प्रकट कर लेना ही बुद्धिमानों का कार्य है । अतएव अरिदमन ने अपना जीवन संयम की खेती में अर्पण कर दिया । दुर्द्धर तप धारण किया ।।६५, ६६।।
तस्येव सेवको वैरिदमनोऽभूभयंवहन् ।
किं किं न जायते स्वेष्टं पुण्यात् तपसोप्यसौ ॥१७॥
अन्वयार्थ - (असौ) वह (वैरिदमनः वैरिदमन राजा (भयम् ) भय (वहन् ) धारण करता हुआ (तस्य) श्रीपाल का (एब)ही (सेवक:)सेवक (अभूत्) हो गया, सत्य है (पुण्यात्) पुण्योदय से (तपसा) तप से (किं किम्) क्या-क्या (स्व) अपना (इष्टम्) इष्ट (न) नहीं (जायते) होता ?
भावार्थ बह वैरिदमन राजा तो हुना परन्तु श्रीपाल राजा के बल-पराक्रम के सम्मुख टिक न सका भयातुर हो उसी की शरण में जा गिरा अर्थात् श्रीपाल की प्राधीनता स्वीकार की। पुष्य और तप से क्या-क्या सिद्ध नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ साध्य हो ही जाता है । इसलिए भव्य जीवों को प्रयत्नपूर्वक पुण्यार्जन अवश्य ही करना चाहिए ।।१७।।
श्रीपालस्सद्वतोपेतो लीलया साधयन्महीम् । भूरिसंन्यो महाराष्ट्रदेशं, गत्वा महोत्सवः ।।६८॥ तद्देशानेकराजेन्द्र कन्यापञ्चशतानि च । परिणीयततोधीरो देशे गुर्जर संज्ञके ||६|| जित्वा गौर्जर भूपालान् स्वपुण्यपरिपाकतः । कन्यास्सप्तशतान्युच्चस्तेषां लात्वा धनादिभिः ॥१०॥ मेदपाटस्थ भूपानां सारकन्या शतद्वयम् । विवाहविधिना धीमान् समादाय गुणोज्वलः ॥१०१॥ ततोऽन्तथासीनां राज्ञा सारकन्याविभ तिभिः । सुधीष्पण्णवतिश्चाति संभ्रमेण मनोहराः ॥१०२॥