Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद __अन्वयार्थ- (तस्मात् ) इसलिये (प्राण वल्लभ) हे प्राणवल्लभ ! (अत्र) इस अवसर पर (तस्य ) उस पिता प्रजापाल के साथ (तदेव) बैसा ही (कर्तव्यं) करना चाहिये (येन) जिससे (श्रीजिनधर्मका श्रेष्ठ दिनधर्म का प्रमो प्रभाग, महान (ध्रुवम् ) अचल या निरन्तर स्थिर (भवति) रहे या रहना है।
भावार्थ---जैन धर्म का महान वैशिष्ट्य स्थाई रूप से इस पृथ्वी पर अंकित रहे । जन-धर्म में असाध्य रोग को भी दूर करने की शक्ति है सभी दुःसाध्य कार्य जैन धर्म के प्रभाव से सरल हो जाते हैं तथा जीवन से विपत्ति रूपी बादल सदा के लिये विलीन हो जाते हैं इस तत्व को सर्व जनता समझ सके इसके लिये पिता प्रजापाल के साथ वैसा व्यवहार करन इस अवसर पर ठीक है। अतः आप वैसा ही करें इत्यादि वचन मैनासुन्दरी ने श्रीपाल से कहा ।।१४२॥
तदा सोऽपि प्रिया वाक्यं श्रुत्वा कार्य विदाम्वरः । बुद्धि सागर नामानं दूतं संप्राहिणोद्रुतम् ।।१४३।। प्रजापालं प्रति वक्त गदित्या स्वमनोगतम् । सोऽपि वृतस्तदा सर्व कार्याकार्य विचक्षणः ॥१४४॥ वक्ता समर्थों निर्लोभी निर्भय स्वामि सम्मतः ।
ज्ञातादेशः स्वभावज्ञो लेखं लात्वा विनिर्ययोः ॥१४५।। अन्वयार्थ-(तदा) तब (कार्य विदाम्बरः) कार्य कुशल अथवा कार्य विशेषज्ञ (सोऽपि) वह श्रीपाल भी (प्रियावाक्यं) प्रिया के बाक्य को (श्रुत्वा) सुनकर (प्रजापालं प्रति वक्त) प्रजापाल को कहने के लिये (बुद्धिसागरनामानं) बुद्धिसागर नामक (दूतं) दूत को (स्वमनोगतं गदित्वा) अपने अभिप्राय को कह कर (द्र तं) शीघ्र (संप्राहिणोद्) भेज दिया (तदा) तब (कार्याकार्थ विचक्षणः) कार्य अकार्य को विशेष रूप से जानने वाला (समर्थो वक्ता) सुयोग्य वक्ता (निर्लोभो) निर्लोभी (निर्भयः) भय रहित (स्वामिसम्मत:) स्वामी को सम्मति के अनुकूल कार्य करने वाला (स्वभावज्ञो) स्वभाव से ही बुद्धिमान (ज्ञातादेश:) प्राप्त है आदेश जिसको ऐसा (सोऽपि दूतः) वह दूत भी (लेख) लिखित प्रादेश पत्र को (लात्वा) लेकर (विनिर्ययो) निकल गया।
भावार्थ - तदनन्तर प्रियतमा मदन सुन्दरी के अभिप्राय को श्रेष्ठ जानकर श्रीपाल महाराज ने बुद्धिसागर नामक दूत को बुलाया । वह दूत अति बुद्धिमान कार्य अकार्य को समभने वाला दरदर्शी. स्वामी की आज्ञानसार प्रवत्ति करने वाला कशल वक्ता, मिलोभी, निर्भय और विनयशील था। श्रीपाल ने उसको अपने मनोगत अभिप्राय को बताकर तथा प्रजापाल राजा के प्रति अपना आदेश पत्र लिखकर दूत को देकर भेज दिया । वह दूत सन्देश वा आदेश पत्र लेकर शीघ्र उज्जयनो नगरी में प्रजापाल राजा के पास पहुंच गया।