Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद ।
अहंकार से हमारे पिता का चित्तमलिन है अतः मदनसुन्दरी कहती है आप वैसा ही कार्य करें जिससे हमारे पिता मिथ्या गर्व को छोड़ देवें ।। १३६ ।।
तन्निशम्याववत्सोऽपि श्रीपालो भो प्रियोत्तमे ।
सोऽस्माकमुपकारी स कथं तत्किय ते शुभे ॥१४०॥
अन्वयार्थ--(तत निशम्य) मैंनासुन्दरी के उस वचन को सुनकर (सो श्रीपालोअपि अवदत् ) वह श्रीपाल भी बोला (भो प्रियोत्तमे) है प्रियतमा ! (शुभे) शुभलक्षणो ! (सो) वह प्रजापाल (अस्माकं) हमारा (उपकारी) उपकारी है । (तत् स ) अत: वैसा कार्य उसके प्रति (कथं क्रियते) कैसे करूं ? अर्थात् वैसा करना योग्य नहीं है ।
भावार्थ-वह श्रीपाल मनासुन्दरी की बातों को सुनकर कहने लगा कि मेरे लिये तो प्रजापाल ने अच्छा ही किया । वह मुझको अपनी पुत्री को देकर हमारे कुष्ट रोग के निवारण में सहायक बना, फिर मैं इस प्रकार का अनुचित व्यवहार अपने उपकारी के प्रति कैसे कर सकता हूँ? हमारे लिये यह योग्य नहीं है । इस प्रकार का निकृष्ट आदेश में प्रजापाल को नहीं दे सकता हूँ ॥१४०॥
सम्यक्त्वशालिनी प्राह पुनर्मदनसुन्दरी।
ताचिन भो मो शोके जै वभाव न ॥१४१॥ अन्ययार्थ- (पुन:) तदनन्तर (सम्यक्त्वशालिनी) सम्यग्दर्शनगुण से अलङ्कृत (मदनसुन्दरी प्राह) मदन सुन्दरी बोली (तत् बिना) उसके बिना अर्थात् वैसा किये बिना (भो प्रभो ! ) हे प्रभु ! (लोके) लोक में (जैनधर्म प्रभाव) जैन धर्म की महिमा का प्रकटीकरण जैन धर्म का वैशिष्ट्य (न) परिज्ञात नहीं हो सकता है।
भावार्थ-मैना सुन्दरी श्रीपाल से आग्रह करती है कि आप हमारे पिता को यदि इस प्रकार अनुजा नहीं देते हैं और साधारण गति से उनसे मिलेंगे तो पिता को तथा लोक के साधारण जन समुदाय को जिनधर्म का अनुपम प्रभाव तथा जैन सिद्धान्त में उल्लिखित कर्मबाद की यथार्थता समझ में न आ सकेगी। जिन पूजा के प्रभाव से दुष्कर दूनिवार्य कुष्ट रोग भी बिना औषध के सहज दर हो गया यह विषय भी घर-घर में सबको मालम हो सके । सभी लोग मिथ्या धर्म को छोड़कर सच्चे धर्म को स्वीकार करें। कोई भी पिता की तरह मिथ्या दम्भ कर अयोग्य आचरण न करे इस तथ्य वा लक्ष्य को दृष्टि में रखकर ही मैंने पिता प्रजापाल से मिलने की यह अनुविधि आपसे कही सो आप जिनधर्म की प्रभावना के लिये ऐसा ही करें इस प्रकार मेरा आपसे नम्र निवेदन है ।।१४१।।
तस्मात्तस्य तदेवात्र कर्तव्य प्राणवल्लभ । येन श्रीजिनधर्मस्य प्रभावो भवति ध्र वम ।।१४२॥