Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
३६० ]
[ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
पत्रेऽस्मिन् लिखितं राजन् यत्सर्वं त्वं विधेहि तत् । ततो विज्ञाय तत्त् प्राप्य प्रजापालोति गर्ववान् ।। १५०।। प्रोवाच व्रतं रे याहि समर्थोऽहं रणाङ्गणे । सिंहः कि मृगसन्दोहैबध्यतेऽहो महीतले ।। १५१ ।
अन्वयार्थ - ( राजन् ) हे राजा ! ( अस्मिन पत्रे ) इस पत्र में ( य लिखितं ) जो लिखा है ( तत् सर्व ) वह सब ( त्वं ) तुम ( विधेहि ) करो। (ततो) तदनन्तर ( अति गर्बवान् प्रजापालो ) प्रति अहंकारी प्रजापाल ने (तत्) उस आदेश को (विज्ञाय ) जानकर ( प्राप्य ) पत्र को प्राप्त कर ( दूतं प्रोवाच ) दूत को कहा (रे याहि ) अरे ! जा (अहं) मैं ( रणाङ्ग) युद्ध स्थल में (समय) कितना समर्थ हूँ बता दूँगा । ( अहो कि महीतले ) अरे क्या पृथ्वी तल पर (मृगसन्दोहैः ) हिरणों के द्वारा ( सिंह: वाध्यते ? ) सिंह बाधित होता है । अर्थात् नहीं होता है ।
भावार्थ - तदनन्तर बुद्धिसागर नामक दूत ने प्रजापाल राजा को कहा कि आप इस आदेश पत्र को अच्छी तरह पढ़ लें और जो कुछ इसमें लिखा है उसे शीघ्र सम्पन्न करें तब दूत के इस प्रकार के दबावपूर्ण वचन को सुन कर उस अहंकारी राजा प्रजापाल ने कहा कि अरे दूत ! तू यहाँ से जा मैं युद्धस्थल में तुम्हारे राजा को अपनी सामर्थ्य दिखा दूँगा । हिरणों के समूह से सिंह कभी बाधित पीड़ित नहीं होता है । यहाँ प्रजापाल राजा श्रीपाल महाराज को हिरणियों के समान निर्बल बताता है और अपने को सिंह के समान पराक्रमी । वह श्रीपास के आदेश पत्र की अवहेलना करते हुए युद्ध के लिये उसका आह्वान करता है । उसने दूस कह दिया कि युद्ध में ही इस आदेश पत्र का उत्तर दूँगा, प्रभो नहीं ।
rrived fक यां भास्करो महिमाकरः । अहो स दुर्मदायेव मया सह कि युध्यते ॥ १५२॥ तिष्ठ त्वमत्रैव संग्रामे पश्यामि त्वत्पराक्रमम् । इत्यादिकं क्रूधा जल्पन् प्रजापालस्तु मन्त्रिभिः ।। १५३१ : बोधितो देव कर्तव्यो नैव गर्वस्त्वया प्रभो ।
देव क्रोधो न कर्त्तव्यो धर्मध्नः स्वात्मनाशकृत् ।। १५४ ।।
अन्वयार्थ - (महिमाकरः) महिमाशाली अर्थात् प्रकाशशील ( भास्करो ) सूर्य ( किं) क्या ( खद्योतैः) जुगुनुनों के द्वारा (छाद्यते ) ढका जा सकता है ? तिरस्कृत हो सकता है ? श्रर्थात् नहीं हो सकता है । ( अहो ) अरे ! ( दुर्मदाड्येव ) निश्चय से मिथ्या अहंकार से भरा हुआ वह (मयासह ) मेरे साथ ( कियुध्यते ) क्या युद्ध करेगा ? (स्वम् तिष्ठ ) तुम ठहरी, रुको ( अत्रैव संग्रामे ) यहीं युद्ध में ( स्वत पराक्रमम । तुम्हारा पराक्रम (पश्यामि) देखता हूँ (इत्यादिकं धा जल्पन) इत्यादि वचन क्रोध से बोलता हुआ (प्रजापालस्तु ) वह प्रजापाल राजा