Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद]
[३७६
है। नगरी को चारों ओर से घेर लिया है। इस समय तुम्हारा पिता राजा प्रजापाल क्या करता है यह सोचनीय है । राजा पर सङ्कट पाया है इस समय तुम्हारा गृहत्याग क्या शोभनीय होगा ? अत: थाडा धैर्य धरो । देख प्रात: क्या होता है । आकुल नहीं होना चाहिए । आदरणीय माँ की बात सुनते हुयो पूनः बह बोली ! माते ! यह क्या आश्चर्य है देखिये जरा मेरी बायीं आंख तेजी से फड़क रही है, इधर बायीं भुजा भी बेग से आपे से बाहर हो रही है । ये चिन्ह तो प्रिय मिलन के हैं परन्तु पाप ही कहिये यह किस प्रकार संभव हो सकता है ? क्योंकि मेरे प्रियतम तो यहाँ से बहुत दूर विराज रहे हैं, फिर भला संयोग कैसा ? मरे प्राणवल्लभ सभी कल्याणों के आधार हैं और जिनशासन के परम भक्त हैं, दूरदर्शी हैं. परन्तु हैं तो अति दूर, फिर मिलन की आशा किस प्रकार पूर्ण हो । यहाँ प्राचार्य श्री लौकिक घटनाओं का अत्यन्त स्वाभाविक और आकर्षक चित्रण किया है। सास बह की ग्रीति, संयभित संवाद, अन्त:करण के भावों का प्रभाव कितना सजीव जीता-जागता चित्रण हुआ कि प्राज की समाज को पूर्णत: आदर्श स्वरूप है । वर्तमान समाज की वे सास बनी माताएँ जो धन-दौलत की चाह में अपनी सुकुमारी बधुनों को अग्नि और पानी की शरण में वलात् पहुँचाने में नहीं हिचकतीं और वे बहुएँ जो अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों की पूर्ति के लिए अपनी माता रूप सासों को बुलाने के लिए यमराज से प्रार्थना करती रहती हैं, इन्हें इस सास-बहू के जीवन से शिक्षा लेना चाहिए । इस प्रादर्श को माता-बहनें अपने जीवन में उतारलें तो निश्चय ही उनके हृदय में वसा दैत्य-दानव मानव और देवत्व के रूप में परिणमित हो जावे अर्थात् नारकीय जीवन स्वर्गीय जीवन बन जाय ।
देखिये अन्तःकरण की ध्वनि किस प्रकार साकार रूप धारण कर लेती है--
एवं परस्परालापं तयोः श्रुत्वा सहृष्टवान् । श्रीपालोऽपिजगौ मात ! समायातोहमत्र भो! ॥१२॥
अन्वयार्थ -(तयोः) उन दोनों सास-बहू का (एवम ) इस प्रकार (परस्परालापम्) आपस में होती बातों को (श्रुत्वा) सुनकर (सहृष्टवान्) अत्यन्त हर्षित होकर (श्रीपाल:) श्रीपाल (अपि) भी (जगी) बोल उठा (भो) है (मात ! ) माता (अहम् ) मैं (त्र) यहाँ (समायात:) पा गया।
. भावार्थ- उन दोनों (सास-बहू) का वार्तालाप छ पकर सुनता हुआ श्रीपाल नपति परमानन्द को प्राप्त हुआ। उसका रोम-रोम उल्लसित हो उठा। जननी की ममता और पत्नि का प्यार एक साथ उमड पडा । इस आनन्द सिन्धु की उछाल को वह रोक न सका । भावाति रेक से सहसा उसकी प्रिय-मधुर ध्वनि गूज उठी, "माँ, मैं तुम्हारा दुलारा पुत्र यहाँ धा पहुंचा। यह अमृतवाणी उन दोनों के कर्ण कुहर से प्रविष्ट हो हृदय सरोवर में जा भरी । तब क्या हुआ वह अगले श्लोक में देखिये ।।१२१।।
श्रीपाल श्रुतिमाकर्ण्य परमानन्दनिर्भरा । द्वारमुद्घाटयामास सती मदनसुन्दरी ॥१२२॥