Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद प्रियाओं को देखकर परम सन्तोष हुआ । अर्थात् श्रीपाल ने अपनी प्राणप्रिया मदनसुन्दरी को एक-एक करके अपना पूरा दल-बल रानियां आदि दिखलायीं ||१२६ १३०॥
तदा ताभिः समस्ताभिस्तां समालोक्य सुन्दरीम् । मञ्जरीचाम्रवृक्षस्य सर्वलक्षण सुन्दरीम् ॥१३१॥ संभ्रमेण समुत्थाय परमाह्लाद पूर्वकम् ।
प्रस्माकं स्वामिनीत्युच्चैस्त्वं सम्भाष्य नमस्कृता ॥ १३२॥
मन्वयार्थ - ( तदा ) तब ( आम्रवृक्षस्य ) ग्राम के वृक्ष की (मञ्जरी) मञ्जरी ( सर्वलक्षण) सम्पूर्ण लक्षणों से ( सुन्दरीम् ) सुन्दर (ताम् ) उस ( सुन्दरीम् ) मैंनासुन्दरी को ( समालोक्य) देखकर ( सम्भ्रमेरण) सहसा उत्साह से ( समुत्थाय ) उठकर (परमाह्लाद) पर - मानन्द ( पूर्वकम् ) सहित ( ताभिः ) उन ( समस्ताभिः) सभी रानियों ने (ताम् ) उसको ( त्वम् ) आप (अस्माकम् ) हमारी ( स्वामिनी ) मालकिन हैं (इति) इस प्रकार ( सम्भाष्य ) बोलकर (उच्चः ) अति विनय से ( नमस्कृता) नमस्कार किया ।
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भावार्थ — वहाँ समस्त श्री और अन्तः पुर को देखकर महासती मदनसुन्दरी अत्यन्त हर्षित हुयी । उस परम अनिंद्य सुन्दरी, ग्राम की मञ्जरी के समान अत्यन्त सुकोमलाङ्गो, सम्पूर्ण नारी के शुभलक्षणों युक्त उसे देखकर श्रीपाल की समस्त रानियाँ वेग से उत्साह पूर्वक उठकर खड़ी हो गई । ज्येष्ठ और श्रेष्ठ जनों का सत्कार- पुरस्कार करना सज्जनों का कर्त्तव्य है | अतः सबों ने विनम्र स्वर में कहा आप हमारी स्वामिनी हैं। प्रर्थात् हम सब में बड़ी हैं, नमस्करणीय हैं। इस प्रकार बोलकर बिनयावत करबद्ध हो सबों ने उसे नमस्कार किया । पारस्परिक प्रेम और वात्सल्य का कितना वेजोड आदर्श है यह । ग्राज सपत्नी का नाम सुनते ही हृदय डाह, ईर्ष्या और घृणा से भर जाता है जबकि यहां हजारों रमणियाँ प्रेम, वात्सल्य देख दूसरे के प्रति सम्मान का भाव रखती आनन्दानुभव करती हैं। हमारी माता और बहिनों को इससे आदर्श और शिक्षा ग्रहण करना चाहिए ।। १३१ १३२ ।।
सिद्धचक्र प्रसादेन त्रैलोक्य सुखकारिणा । ज्येष्ठावाष्टसहस्त्रस्त्रीणामुपर्यभवत्तदा ॥१३३॥
अन्वयार्थ - ( तदा) तब ( त्रैलोक्यसुखकारिणा ) तीन लोकों के सुख का हेतू (सिद्धप्रसादेन ) सिद्धचकविधान के माहात्म्य से (अष्टसहस्र ) अठारह हजार (स्त्रीणाम) रानियों के (उपरि ) ऊपर ( ज्येष्ठा) बडी ( अभवत् ) हो गई ।
भावार्थ -- धर्म की शक्ति अचिन्त्य है । कहीं कुष्ठी पति और कहाँ कञ्चन सी हो गई काया । कहाँ कङ्गालरूप और कहाँ श्राज महामण्डलेश्वर, कहाँ पति बियोग और पुनः बारह वर्ष में यह मधुर संयोग । आज उसी सिद्धचक्र आराधना के फल स्वरूप महासतो मैंनासुन्दरी आठ हजार देवाङ्गना समान रानियों की स्वामिनी अग्रमहिषी हो गई । अर्थात् पट्टरानी पदा